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चिराग़

चिराग़

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चिराग़ अपनी आंखों के महफूज़ रखना

न जाने कब किन अंधेरों को रोशनी मिल जाए।


आलम-ए-दरद में भी मुस्कानें क़ायम रखना

न जाने किन ग़मों को रूह की राहत हो जाए।


बड़ी मुश्किल से हासिल है वो इक शख़्स लाखों में

जले जो औरों के हक़ में कि ऐसा दिया हो जाए।


पढ़ती हूं जैसे तिरी अनकही बातें भी अक्सर

जी जाती मैं भी खामोशियों पे मिरी ग़र तिरा ग़ौर हो जाए।


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