चीख
चीख
वो चीखी थी चिल्लाई थी पल पल वो छटपटाई थी
अपनी आबरू बचाने को हर तरह गुहार लगाई थी
वो कैसा मंजर छाया था हर तरफ बस दर्द का साया था
इनसान का रूप धरे वो पापी भेस बदल कर आया था
ना दया भावना थी उसमें और ना ही शर्म दिखाई थी
उस लड़की पर जुल्मों की उसने सारी हदें मिटाई थी
ना सोच समझ कुछ आया था ये कैसा खेल रचाया था
इस दैतययी सी हरकत से मन सबका भर आया था
थी परी वो अपने परिवार की
राजकुमारी उनके जहान की
बड़े नाजों से उसको पाला था
उसके संग कुछ ऐसा होगा ये किसी ने कभी ना जाना था
कुछ लोग जो बातें करते थे वो कल भी करते आयेंगे
अपने कड़वे शब्दों से वो मानवता का सर झुकाएंगे
क्या पहना था कहां गई थी तुम तुम्हारे परिवार वाले कैसे जी पाएंगे
क्या अपनी बहु ओर बेटी को भी ऐसा ही वो सताएंगे
कलंक हो तुम बदचलन भी हो मर्दों को कैसे रिझाती हो
बेचारी बनकर ठोंग रचाकर अब क्यू जीना चाहती हो
वो सोचती है क्या खता मेरी जो ताने सुनकर जीयूं मैं
क्यूँ अपने आक्रोश को रोज खुट खुट करके पीयूं मैं
मैं लड़ूँगी और जीयूँगी भी अब अपना सर उठाकर
इस दोगले समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर
कदम से कदम मिलाकर...
