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achla Nagar

Abstract

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achla Nagar

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बट। गया संसार

बट। गया संसार

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इस तरुण संसार को यह क्या हो गया

जो इस प्रकार अनिश्चित काल हेतु थम गया

उमंगे छीण पड़ीतरंगे हीन पड़ी

मानो हो जलरहित कोई 'मीन'

पड़ी सजते थे जहां दैनिक मेले


लोग भी रहते थे भांति वस्तु ठेले

वही धराये इन दिनों दुरूह शमशान बनी

उत्कंठाये ऊर्ध्वाधर किन्तु अड़वामान खड़ी

निज परमाणु चंद्रमा का भी अस्तित्व

चट कर सकने वाला मानव


गला दबाये बैठा है

मुंह लटकाये बैठा है

वायु अभी पर्याप्त है

ऑक्सिजन भी अभी व्याप्त है

फिर भी समापन घुटन है झेल रहा


वह संयोजन भी है भूल गया द्वेष-दमन का

जो आदि से आजतक उसका है चिन्ह मेल रहा

मत-मताहत मान-मर्यादा के गणित का

मानो हो वह सूत्र ही भूल गया

जग ने अबकी जबसे होश सम्भाला


बारी प्रथम धर्म को छोड़ गेंद कर्म के पाले

डाला चंद्रमा ही नही मात्र आतंकित जिनसे

धरा भी सुतनिज आतंक नित्य है झेलती

किन्तु अब वही अभिमानी मानव

निर्मम काल से पनाह है मांग रहा।


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