बरसात की वेदना
बरसात की वेदना
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देखना है हाल चाल !
तो पूछ लो उस मानसून से
दर्दे से मायूस
जगह-जगह मानव जाति का हाहाकार है।
बरसात बनकर बरसना मुझे अच्छा लगता है
मैं कहाँ बरसू मुझे जगह तो दो।।
हे मानव!
इस धरती पर मेरे लिए
कोई स्थान शेष नहीं बचा ,
जिस पानी के बहने की जगह थी,
उस नीर की जगह
तुमने बड़े-बड़े भवनों की नीवं रख दी ।
बरसात बनकर बरसना
मुझे अच्छा लगता हैं ।
अब मैं कहाँ बरसू
मुझे जगह तो दो।।
हे मानव!
खेत-खलिहानों को भी ना छोड़ा ,
छोड़ा तो पूंजी का अपना साधन छोड़ा ।
बरसात बनकर बरसना
मुझे अच्छा लगता हैं ।
अब बरसू तो कहाँ बरसू
मुझे जगह तो दो।।
हे मानव
पानी को तुमने
बाँधों में बांध दिया,
नदियो में तुमने अपने आशियाने बनाए ,
अब बरसू थोड़ा सा भी
तो तुम्हें बाढ़ लगती हैं ।
अब बरसू भी तो कहाँ बरसू
मुझे जगह तो दो।।
हे मानव!
मैं ना बरसू
तो किसान,मजदूर मरता हैं ।
और मैं ज्यादा बरसूं
तो पूंजीपतियों की इमारतें
पानी में तब्दील होती हैं ।
बरसात बनकर बरसना
मुझे अच्छा लगता हैं
अब हे मानव,तुम्हीं बताओ
अब बरसू तो कहाँ बरसू
मुझे जगह तो दो।।