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बँटवारा

बँटवारा

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हर दूसरे शनिवार को

बारह बजते ही

माँ बेसब्री से

दरवाजे की ओर देखा करती।

उनकी आँखों में

एक अजब-सी प्यास हुआ करती,

मैं भी बार-बार दरवाजे की ओर देखती।

डाक का थैला

साइकिल पर लटकाए हुए

बनवारी को

हमारे घर की तरफ आते देख

मैं ख़ुशी से उछल पड़ती!

‘माँ, नानीमाँ का खत आया है।’

बनवारी के हाथ से

पोस्टकार्ड छिनकर

मैं माँ को देती और कहती,

‘माँ, पढ़कर सुनाओ।’

माँ ज़ोर से पढ़ती

वही सात-आठ पंक्तियाँ

जो हर खत में लिखी होती थी।

पर न जाने क्या जादू था

उन पंक्तियों में

कि हर बार मैं सुनना चाहती!

अंतिम पंक्ति आज भी

मेरे हृदय में अंकित है-

‘भगवान न जाने कब

मेरी ओर आँख उठाकर देखेंगे।’

पढ़ते-पढ़ते माँ

एक गहरी साँस लेकर चुप हो जाती।

 

समय बदल गया है।

नानीमाँ अब नहीं रही, पापा भी नहीं रहे।

माँ बुढ़ापे के अंतिम छोर पर रुकी है।

अपने दोनों बेटों के परिवार के साथ

बारी-बारी से रहती है-

एक नया बँटवारा है!

मैं विवश हूँ।

एक बार माँ-बेटी के रिश्ते की

उस गहराई को महसूस करना चाहती हूँ,

उस पवित्र रिश्ते को जीना चाहती हूँ

जो सिर्फ पोस्टकार्ड पर लिखे

उन चंद शब्दों पर

बुलंद हुआ करता था!

पर माँ को मैं पत्र नहीं लिख सकती,

फोन भी नहीं कर सकती;

विवशता की पराकाष्ठा है।

कभी-कभार जब

माँ से मिलने का अवसर आता है,

उनकी धुंधली आँखों में

मुझे एक ही पंक्ति

तैरती हुई नज़र आती है–

‘भगवान न जाने कब

मेरी ओर आँख उठाकर देखेंगे!’


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