बनारस
बनारस
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वही अलबेली सुबह,
वही गंगा की लहरों पे,
सूर्य की किरणों का स्पंदन,
वही भीनी-भीनी सी पवन में घुली,
प्रसाद की सुगन्ध,
वही मंत्रोच्चारण की ध्वनि,
वही निरन्तर बजती घंटियां,
कहीं सुदूर।
वहीं महाश्मशान मणिकर्णिका,
हर क्षण ज्वलन्त है,
जीवन का सत्य कहते।
विश्वनाथ मंदिर है हृदय,
और ये सँकरी गलियाँ,
धमनियाँ और शिराएँ हैं,
जो आकर मिलती हैं,
सब की सब,
शुष्मणा में, गंगा में।
मिलकर ये सब, बनाती हैं,
एक प्राचीन स्थल को,
प्राचीनतम जीवंत नगर।
परन्तु,
गंगा का जल घाट की
एक और सीढ़ी उतर गया,
कँवल पुष्पों के साथ तिरता है,
समस्त नगर का कर्कट।
दशाश्वमेध पर जल काला है,
और रहेगा,
जब तक फिर से कोई,
नेता विचरण को न आए।
भाँग, जो घुली है,
इस नगर के वातावरण में,
जो मुक्त करती थी भय से,
आज शिथिल कर रही है,
हर प्राणी को।
तपती दोपहर की धूप है,
लू चल रही है,
बाँस के फूल उड़ते हैं,
घंटियाँ भी मौन हैं,
असी लुप्त हो चुकी है,
वरुणा नाला बन गई है,
परन्तु हर प्रश्न का प्राप्त है,
अब भी जीवित है अपनी संस्कृति में,
हम सब में,
(अंतिम) श्वास भरता है,
बनारस।