बेटी है जंजाल नहीं।
बेटी है जंजाल नहीं।
बेटी है जंजाल नहीं।
दिल का टुकड़ा है,
कोई दान देने का सामान नहीं।
समाज की रीतों के आगे झुकना पड़ता है।
हां, बेटी को विदा भी करना पड़ता है।
हम रहे ना रहे
बस जिंदगी उसकी चलती रहे।
घर उसका बसा रहे और वह हमारे बिना भी सुरक्षित ही रहे।
बस इसी ख्याल को मन में रखकर उसका विवाह भी करना पड़ता है।
बहुत कुछ देख कर भी अनदेखा करना पड़ता है।
आज के समय के नारीवादी और प्रगतिवादी ,
जो पुरातनपंथियों को देते हैं दोष
आधुनिकता के नाम पर जो बेटी के संस्कारों पर लगाते हैं रोक।
उनसे सिर्फ इतना ही कहना है कि बेटी हीरा है उसे संभालना ही पड़ता है।
हर बुरी नजर से उसे बचाना ही पड़ता है।
जीवन के थपेड़ों को सह कर भी
जो दो घरों की जिंदगी बना पाएं,
ऐसा मजबूत उसे बनाना ही पड़ता है।
संस्कारवश झुकना जरूरी है
लेकिन आत्म सम्मान को दांव पर लगाने की क्या मजबूरी है।
अपनी सामर्थ्यनुसार उसका ख्याल रखने से मुझे परहेज नहीं।
बेटी है कोई जंजाल नहीं,
काबिल है, इसलिए कोई बवाल नहीं।
मां-बाप की आंखों का तारा,
और ससुराल का जगमगाता सितारा है वह।
दुनिया के घनघोर अंधेरों का उजाला है वह।
आनंद, उमंग, उत्सव, नृत्य , गायन और प्रकाश।
बेटी के जहां ना पड़े कदम वह घर है उदास।