बदलते लोग
बदलते लोग
वक़्त ने वक़्त पर
बहुत कुछ सिखाया
कभी हँसाया, कभी रुलाया
वास्तविकता कुछ और रही
मैं काल्पनिकता में ख़ुश होता रहा
खोता रहा।
कब न जाने क्या बदला
कब न जाने क्या हुआ
नैतिकता कहीं खो गयी
सच दूर अँधेरी कोठरी में कैद था
सब बदल रहे थे,
सब मतलबी हो चले थे
समाज के आईने में
और मन के आईने में गहरी खाई थी
सच अँधेरी कोठरी में कैद था।
जब लगा जो किया,
मन उचट गया था,
किताब पढ़ी,
लिखा था।
डर के कारण ईमान की बात नहीं करोगे
( मुंशी प्रेमचंद को समर्पित ये वाक्य)
लगा सबकुछ बदल गया
समाज के असली रावण को कब मारोगे,
कब स्त्री का चिर हरण रुकेगा
कब ये समाज जागेगा ?
मन और मैं ऐसे काल्पनिक
समाज में नहीं ख़ुश होना चाहता है,
ये चाहता है यथार्थ,
ये चाहता है सुखद परिणाम
जैसे हुआ था महाभारत में।