बदल रहा है वक़्त
बदल रहा है वक़्त
कविता
बदल रहा है वक़्त
बदल रहा है वक़्त, बदल रहे हालात है।
बदल रहा इंसान, बदल रही हर बात है।
जज़्बातों का ना मोल रहा।
रिश्ता इक दूजे को तौल रहा।
एक समय वो था
जब मुद्दा होता था परिवार।
सब मिल मनाते थे त्योहार।
रिश्तों का कोई जोर नहीं था।
किसी के मन में कोई चोर नहीं था।
सुनाती थी तब दादी और नानी।
एक था राजा और एक थी रानी।
खत्म हुए अब किस्स कहानी
हो गयी अब ये बात पुरानी।
बैठ नीम के नीचे बच्चे तब
गुड़ियों का ब्याह रचाते थे।
खेतों की मेड़ो पर चढ़कर
एक दूजे को खूब चिड़ाते थे।
शाम को लड़ते, झगड़ा करते
सुबह मिल एक हो जाते थे।
कागज की किस्ती और
बस्ती की मिट्टी ही तब खिलौने थे।
बैठ साथ में शाम सवेरे
एक थाल में खाते थे।
बिन चावल और सब्जी के
चटनी, अचार का स्वाद उड़ाते थे।
आज इंसानों के कई मुखौटे है।
बाहर से नरम और दिल से खोटे है।
नज़र से कुछ और ज़िगर से कुछ
विचारों के उच्च और करम से तुच्छ।
हाईटेक हो गयी अब तो लाइफ
तकनीकी का तो विकास हुआ
पर रिश्ते नातों का सब नाश हुआ।
वाट्सएप, इंस्टा, एफबी पर ही
सिमट गया अब संसार है।
बस वही सबका अब तो
साथी, दोस्त, शिक्षक और परिवार है।
ना दर्द किसी को होता है।
ना कोई किसी के लिए रोता है।
इंटरनेट के जाल में फँस कर भी
खुद अकेले में हँसता है।
और लोगों को फँसाने का
नया षड्यंत्र फिर रचता है।
भरकर कचरा मन मस्तिष्क में
देर रात तक जाग, बेचैन हमेशा रहता है।
पूजे जाते थे भगवान, देव मनाये जाते थे।
अब मना रहे हैं हैलवीन डे और पूज रहे हैवान है।
अब मिट रही इंसानियत और ना रहे भगवान है।
बदल रहा है वक़्त और बदल रहा इंसान है।
बदल रहे हालात और बदल रहे जज़्बात हैं।