बढ़े चलो
बढ़े चलो
स्वछन्द सी उस बेला में, शांत से उस भँवर में
मन के उदवादों को संतुलित कर के बढ़ना ।
खामोश सी उन राहो में, डूबते उन पलों में
पग की थरथराहट को स्थिर करके बढ़ना ।
विस्मय की घड़ी हो, या खुशी का मंजर
निश्छल बन, बिना किसी स्वार्थ के आगे बढ़ना ।
मधुमय हो सागर, या खारा पानी
बिना किसी अवरोध के कल कल आगे बढ़ना ।
वो तवर वो भँवर, वो कटाक्ष सी क्रुरता भी हो तो क्या
व्यथा की उन घड़ी में, अपने भी साथ छोर दे तो क्या ।
वीराने से उन चमन में, मंद हो रही हो साँस भी तो क्या
ना रुके ना थके, बिना किसी विसाद के तुम आगे बढ़ना ।
खामोश हो उदवाद, या शोर हो हर तरफ जो करती हो विकल भी तो क्या
विरोध हो हर तरफ, या साथ होने की झूठी परिकल्पना भी तो क्या ।
शोभित से उन उपवन में बिखर रही हो हर तरफ मायूसी भी तो क्या
शान्ति का उद्बोध कर, बिना किसी जिक्र के हर पल आगे बढ़ना ।
अभिव्यक्ति से परे जो है हर तरफ विशाल सी छटा लिए खरा हुआ
पुलकित हो रही है वसुधा, जिस के महज एक आहट से।
संतृप्ति है हर ओर, जो है संचित हर एक मे बस उसी से
फिर उनमोदित होके, चरम लक्ष्य तक है सतत आगे बढ़ना।