बचपन
बचपन
खुली आंखों से सपने देख आंखें बंद होने पर भूल जाया करते थे।
पसंद बहुत थी पानी की बूंदे मुझे कभी बादल से गिरते तो कभी आंखों से,
हर गम को मिटा देती थी अपनी मुस्कानों से मैं।
कौन क्या सोचेगा इससे बेफिक्र थी मैं,
चमकती थी हर रोज क्योंकि अपनी जिंदगी की स्टार थी मैं।
नामुमकिन मेरे शब्दकोश में नहीं आता था मेरे,
आजकल वैसे जज्बात कहीं खोज नहीं पाती हूँ मैं।
अब हाथों में वह गुड़िया के खिलौने नहीं ,
चिंता के पुल नजर आते हैं।
जेबे तो हमारे पास अब भी है,
पर ऐसा लगता है कि खुशियों के सिक्कों को
हमने दुनिया की आसुलो में खो सी दी है।
कल को बेहतर बनाने की कोशिश में,
क्यों हम आज के खुशियों को नजरअंदाज करते हैं ?
बिना इम्तिहान की तैयारी किए क्यों इंतहान से डर जाते हैं,
आदत बिगड़ गई है हमारी चलो बचपन से सीख आते हैं।
चलो मारे एक लंबी छलांग इस डर के आगे,
उसी जज्बे के साथ जो बचपन में स्कूल बैग में
बड़े सपने लेकर छलांग मारा करते थे।