बावरा-सा मन लिए
बावरा-सा मन लिए
कौन हूं मैं,कहां हूं,कैसे हूं मैं?
देखो! आह!मैं निर्भीक,निश्चिंत,
प्रसन्नचित्त,परमानंद में लिप्त,
बावरा-सा मन लिए फूल हूं मैं।
निर्जन,सुनसान,वीरान,उबड़-खाबड़,
पथरीली ज़मी पर अस्तित्व का साम्राज्य।
शून्य की स्थिति में स्वयं को खोता,
आनंद ही आनंद की शीतल ऊष्मा से,
स्वयं को तरासता,धूप से नहलाता,
हवा से बहलाता,आंधी- तूफां को झकझोरता,
जीवन के आनंद में खोए,
बावरा-सा मन लिए फूल हूं मैं।
ना कोई घर मेरा,ना कोई बंधन!
सांसारिकता के आवरण से परे,
एकांतवास में,एकाग्र भाव लिए।
किसी सिद्ध तपस्वी की भांति,
निर्विकार,निर्मोह अभय भाव से,
परमतत्व,आत्मज्ञान के समभाव से,
परमात्मा के मिलन में खोए,
बावरा-सा मन लिए फूल हूं मैं।
सुख-भोग,ऐश्वर्य सत्ता से दूर।
काम,क्रोध,मद,लोभ,मोह,माया,चिंता से मुक्त।
ना पाने की खुशी,ना खोने का गम।
ना बाहरी चकाचौंध की आशा,
ना भीतर किसी गहरे आंधी का हुड़दंग।
जन्म-जीवन को सार्थकता प्रदान कर,
किसी योगी की भांति,योग साधना में खोए।
बावरा-सा मन लिए,फूल हूं मैं।
कौन हूं मैं,कहां हूं,कैसे हूं मैं?
देखो! आह!मैं निर्भीक,निश्चिंत,
प्रसन्नचित्त,परमानंद में लिप्त,
बावरा-सा मन लिए फूल हूं मैं।
