"बात अपनी दूरी की"
"बात अपनी दूरी की"
गंगा घाट पर बैठे हम,
बात बस चार कदम दूरी की।
खामोशी अपनी खूबसूरत,
जैसे वादी हो मसूरी की।
आंखों के इशारे बोल दिए,
पर जुबान बंधी गलहफहमी की।
थम सी गई अपनी नजदीकियाँ ,
जैसे तुम गर्मी मुंबई की, में सर्दी दिल्ली की।
बस यही तक थी,
यादें तेरी मेरी कहानियों की।
यूं उलझी हुई राहें अपनी,
जैसे बात हो बनारस के गलियों की।
शुरू यही और खत्म भी यही,
अवधि पूरी हो चुकी तेरे मेरे साथ चलने की।
खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे,
अरे यही तो खास बात है ना "केदार" की पहाड़ियों की।