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Sakshi Singh

Romance

4.9  

Sakshi Singh

Romance

बार बार, हर बार

बार बार, हर बार

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मैंने हर बार रख दिया है 

खुद को पूरा–का–पूरा खोलकर 

खुला–खुला–सा बिखरा हुआ 

पड़ा रहता हूँ कभी तुम्हारें घुटनों पर 

कभी तुम्हारी पलकों पर तो

कभी ठीक तुम्हारें पीछे। 

बिखरने के बाद का सिमटा हुआ–सा

मैं ‘था’ से लेकर ‘हूँ’ तक 

पूरा–का–पूरा जी लेता हूँ ख़ुद को 

फिर से मेरे जाने के बाद 

तुम शायद मुझे पढ़ लेती होगी 

कभी अपने घुटनों पर 

कभी अपनी पलकों पर 

पर जो कभी ‘ठीक तुम्हारें पीछे’

बिखरा पड़ा था मैं वो...? 

वो शायद पड़ा होगा

‘अभी भी’ की आशा में 

मैं ख़ुद को समेटे हुए 

फिर से आता हूँ तुम्हारें पास 

फिर बार–बार और हर बार

छोड़ जाता हूँ थोड़ा–सा ख़ुद को 

ठीक तुम्हारें पीछे ।


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