औरत और सपने
औरत और सपने
औरतें !
खिड़की के कोने से, आँगन के चौखट से, घूँघट की ओट से ताकती औरतें, उन सब से कई गुना अधिक शक्तिशाली होती हैं जो औरतों को आँगन में कैद रखना चाहते हैं।
उन्होंने खिड़की के कोने से उस पुरुष को भी देखा है जो औरतों को पीटते हैं, आँगन के चौखट से उन नजरों को भी देखा है जो पल्लू के गिरने का इंतजार करती है और घूँघट की ओट से उन्होंने समस्त सृष्टि को देखा है।
और यह सब देखने के पश्चात् मैं इस निष्कर्ष पर पहुचा हूँ कि भारतीय महिलाएँ पुरुषों से अधिक इंकलाबी होती है।
पुरुषों के अंदर का इंकलाब समान्यत: एक उम्र होने के बाद आती है, मगर लड़कियों का इंकलाब तो पैदा होते ही आ जाता है।
पोते की आस में बैठे घर के बुजुर्ग से स्वीकार्यता का इंकलाब शुरू होकर आँगन से गली तक खेलने के लिए जाने का, गली से मोहल्ले की लड़कियों के घर तक जाने की चाहत का इंकलाब।
और उन सारी हिदायतों का विरोध जो आमतौर पर उसी घर के पुरुष सदस्यों को नहीं दी जाती है।
इन सारी हिदायतों के बावजूद कपड़े एक खास ढंग के पहनो, बैठते वक़्त पैरो को सही से रखो, ज़ोर से न हँसो, खुलकर बातें ना करो, वगैरह-वगैरह से जूझ कर अपनी पसंद की चीज़ें करने का इंकलाब।
इनका इंकलाब घर से शुरू होकर गली, मोहल्ले फ़िर देश दुनिया तक पहुँचती है।
एक पितृसत्तात्मक समाज में पैदा होने के कारण लड़कों को मिल रही सुविधाओं से वंचित होने के बाद भी लड़कों के साथ और उनसे बेहतर होना भी इनके अंदर के इंकलाबी को ही दर्शाता है।
इनका इंकलाब मोहल्ले की नजरों से बच प्रेमी को मिल आने तक, घर की नजरों से बच प्रेमी से दो पल बात कर लेने तक और यह जानते हुए भी कि बहुत मुश्किलें आएंगी फ़िर भी प्रेमी के साथ पूरा सपना सजो लेने तक ही सिमित नहीं होता है।
घर से मार्केट जाने की मांग को पूरा करवाने से लेकर मार्केट जा वापस आने तक अपनी छातियों को उन असंख्य हाथ और आँखों से बचा लेने के बाद भी इनका इंकलाब ख़त्म नहीं होता है।
लेकिन जब बात शादी की आती है तब अपनी पसंद के लड़के से शादी के ना होने पर इनका इंकलाब टूट जाता है।
टूट जाता है इनका रोम-रोम और टूट जाता है मन।
फ़िर घूँघट की ओट से ये दुनिया को देखती है, खिड़की के कोने से किसी इंकलाबी लड़की को देखती है, आँगन के चौखट से देखती है किसी लड़की को अपनी पसंद के लड़के से शादी कर अपने अंदर के इंकलाब को जिन्दा रखते हुए।