अतुलनीय
अतुलनीय
मुझपर उठती हर नज़र विचित्र क्यों है ?
आखिर इतने दाग़ मेरे चरित्र पर क्यों है ?
कौन हूँ मैं ?
नन्ही रूह को बाहों से उतार दिया,
बिन जाने अनजान के हाथ सौंप दिया,
मेरे होने से क्या मैंने तुम्हें
इतना शर्मसार कर दिया ?
आखिर कौन हूँ मैं ?
मैं नर नहीं,
मैं नारी नहीं,
तो क्या हुआ, मैं हिजड़ा ही सहीI
आखिर हर खुशी में तुम मुझे ही बुलाते हो,
बच्चे के होने पर तुम मुझ से ही
आशीर्वाद दिलवाते हो,
मुझे हर जलसे में नचवाते हो,
फिर क्यों मुझपर ही लांछन लगाते हो ?
मैं अधूरा नहीं, मैं पूरा हूँ !
और मैं गर्व से कहता हूँ,
मैं हिजड़ा हूँI
मुझे क्यों बना दिया जाता है
एक अलग किस्सा ?
जबकि हूँ मैं आप ही के
समाज का हिस्सा।