अटल
अटल
गिलगित से गारो तक
आज़ादी का पर्व भए।
ये स्वप्न देकर हमें
वो गूढ़ चिंतक कहाँ गए ?
स्वयं अटल थे, स्वयं अचल थे।
तम प्रगाढ़,`पर वो धवल थे।
धधकती ज्वाला से पावन
फैली कीचड में कमल थे।
राष्ट्रहित पर हो समर्पित
हलाहल भी वो पिए।
वो गूढ़ चिंतक कहाँ गए ?
मानव-वेदना से, हो जाते व्यथित थे,
हार कहाँ मानी पर, ऐसे नये गीत थे।
देख अणुशस्त्र अश्रु-रत्न थे,
अपने ही मुक्ति-क्षण से बंधित थे।
निधि प्रेम की शेष है जिनके
क्षण-क्षण हर क्षण जिए।
वो गूढ़ चिंतक कहाँ गए ?