अरण्य–पथ
अरण्य–पथ
बन बटोही निकल पड़ा,
पथ में पर्वत पाहन था।
सवार होकर चल पड़ा,
द्वि परिधि का वाहन था।
कुछ दूर चल कर देखा मैने,
पथ सुधारक प्रगति पर था।
धुंध हुआ था राहों में,
यात्रा करने में डर था।
भूरज विलय बयारों में,
उस रज से मैं सना–घना था।
मंद गति से चलता मैं,
उस पथ पर जो अभी बना था।
पहले मैंने देखा था,
हरियाली जो लहर रहा था।
प्रखर प्रहार करते जड़ में,
भूमंडल भी कहर रहा था।
देखा मैने तोड़ते हुए,
उपकरण उपल के चट्टानों को।
विध्वंस करते हुए,
झूमती हरीता के उद्यानों को।
छाया तो अब शून्य हुआ,
निष्प्राण वटवृक्ष धरासायी था।
देख दृश्य हतप्रद हृदय,
क्षण दूर अवसाद मिटाने बैठा था।
मरुधरा–सा खण्ड क्षितिज का,
श्वास लेने में बहुत कठिनाई थी।
खग–विहंगम का झुंड निकला,
कोलाहल के ध्वनि से गूंज उठी थी।
मानो जैसे कहती हो वह,
विकट प्रलय अब निकट आया।
तरसेंगे सब छाव नीर से,
तुमने जो तरुवर काट गिराया।
तल गगन के उड़ते पंक्षी,
बाधाओं का बोध कराती।
सूखे नीर निर्झर से,
मकर–मीन की अंत हो जाती।
ऐसा होगा मानव जीवन,
अल्प का होगा आयु उसका।
गूढ़ व्याधि हर चेतन में,
शल्य का उपचार है जिसका।
महामारी आई है भारी,
प्राणवायु का मूल्य लगा है।
सुप्त था जो मानव पहले,
प्रकृति के प्रति अभी जगा है।
पकड़ो तुम इस अवसर को,
लौट ना फिर वापस आएगी।
सोच समझ कर कदम बढ़ाओ,
घड़ी समय बताएगी।
