अपनों की पहचान
अपनों की पहचान


ज़रा सी तकलीफ़ क्या हुई, रो दिया मैंने
ज़रा सी काम्याबी क्या मिली, शोर मचा दिया मैंने
सबको अपना समझकर दिल खोल दिया था मैंने
खंजर चुभते रहे बर्दाश्त कर लिया मैंने
अपनों के लिए काँटों का हार भी पहन लिया था मैंने
उनकी खुशी के लिए काँटों से भी दोस्ती करली थी मैंने
जब खुद जले तो दुसरों को भी जला रहे थे ये लोग
माचिस की फितरत अपना ली थी उन्हों ने, ये भी समझ लिया मैंने
सब अज़ीयत देते रहे मुझे हर तरफ़ से
बेहिसाब मुस्कुरा कर सबको हरा दिया मैंने
ना करें कभी किसी पर भरोसा एक रब के सिवा
जब कश्ती डूबने लगी, ज़िंदगी से सबक़ सीख लिए मैंने।