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अनकही

अनकही

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यूँ ही नहीं बीतती,

करवटों में रातें,

इस रात की ख़ामोशी में,

तेरी यादों का शोर बहुत है।


अब कहाँ वो लड़कपन की,

चाहते वो शरारतें,

ज़िन्दगी के सफ़र में,

ख्वाहिशों का बोझ बहुत है।


शहर की इस ठण्ड में,

इरादों में गर्मजोशी भी नहीं दिखती,

संभल के चलना राहों में,

आगे अभी ओस बहुत है।


ज़रा खामोश से रहते हैं,

बाशिंदे यहाँ के,

सुना है इस शहर में,

सियासत का खौफ बहुत है।


कभी पास बैठो तो बताएँ,

ज़िन्दगी में आये तूफानों का मंजर,

और क्यों मैखाने की शाम के बाद,

हम में होश बहुत है।


साहिलों की ख़ामोशी से नहीं,

परखते समुन्दर का मिज़ाज,

दरिया के इन लहरों में,

छिपा जोश बहुत है।


कौन मिलता है जो सुने,

मुर्दा ख्वाहिशों की चीखें ?

और कहते हैं दुनिया वाले की,

इसे लिखने का शौक बहुत है।


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