अनजान सफर
अनजान सफर
पिता की किताबें
जिन्हें लिखी उन्होंने
रात रात भर जाग कर
कल्पना के तले
घर की ज़िम्मेदारी
निभाने के साथ
साहित्य की दैनिक पूजा की
लगता है
जिंदगी के अंतिम सफर तक
साहित्य का मोह
संग रहता
इसलिए कहा भी गया है कि
शब्द अमर है
पिता का चश्मा, कलम/ कुबड़ी
अब रखे उनकी किताबों के संग
लगता घर म्यूजियम, लायब्रेरी हो
जैसे यादों की
माँ मेहमानों को
बताती / पढ़ाती
पिता की लिखी किताबें
मैं भी लिखना चाहता
>बनना चाहता
पिता की तरह
मगर ,जिंदगी के
भागदौड़ के अनजान
सफर में
फुर्सत कहाँ
मेरे ध्यान ना देने से ही
लगने लगी
पिता की किताबों पर दीमक
भागदौड़ के अनजान सफर छोड़
लक्ष्य का सफर
साहित्य रखर खाव पर रखूँगा
तब ही सही मायने में
साहित्य का सम्मान होगा
और बनूँगा
पिता की तरह लेखक
क्योंकि पिता की किताबों के संग
मेरी किताबों को
बचाना जो है दीमकों से..