अनगढ से अल्फाज
अनगढ से अल्फाज
दिलकी गहराई से निकले
मेरे अनगढ़ से अल्फाज
धडकनों की थाप पे बजते
बेतरतीब से साज
दोनों मिलकर कुछ यूँ
जुगलबंदी कर जाते हैं
जाने अनजाने वह
तुम्हें जन्म दे जाते हैं
नहीं जानता मैं
क्या नाम है तुम्हारा
कभी गजल किसी ने
किसी ने कविता पुकारा
दोहा हो ,छंद हो
कभी हो चौपाई
कभी तुम गजल हो
कभी हो रुबाई
हर रूप में तुम
हो मुझको लुभाती
विचारों के मंथन को
प्रेरित कर जाती
दिल से निकल के
फिर दिल में समाती
प्यारी सी सरगम
लबों पे सजाती
तुम ही हो खुशियाँ
तुम ही हो चैना
तुम ही हो पूजा
तुम ही हो अर्चना
पहचानूँ तुमको पर
नाम नहीं जानूँ
जानूँ बस इतना कि
तुम हो मेरी रचना।