STORYMIRROR

Rahul Singhal

Abstract

4  

Rahul Singhal

Abstract

अंधेरे में वसुंधरा

अंधेरे में वसुंधरा

1 min
304

अट्टालिकाओं के वीराने में

कंक्रीट के जंगल नज़र आते हैं

वन्य जीव-जंतु नहीं दिखते,

अपने आवास को तरस जाते हैं।


लहलहाते खेत-खलिहान

इन्हीं से मिलता है दलहन, तिलहन

यही तो देता है समूचा खाद्यान

अनुपजाऊ बन गया है ये बागवान।


उत्पादन बढाने की फ़िराक में

भाजी तरकारी तक में रसायन घुल गए हैं

तरक्की के नाम पर

अपने आधार को ही

नष्ट करने पर तुल गए हैं।

  

बेतहाशा नगरीकरण और

उद्योगीकरण के ज़माने में

चिमनियों से निकल रहा है

जहरीला धुआं

बेतरतीब से बढ़ते वाहन सड़कों पर

चलना सांस लेना भी मुहाल है,

जैसे मौत का कुआँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract