अंधेरे में वसुंधरा
अंधेरे में वसुंधरा
अट्टालिकाओं के वीराने में
कंक्रीट के जंगल नज़र आते हैं
वन्य जीव-जंतु नहीं दिखते,
अपने आवास को तरस जाते हैं।
लहलहाते खेत-खलिहान
इन्हीं से मिलता है दलहन, तिलहन
यही तो देता है समूचा खाद्यान
अनुपजाऊ बन गया है ये बागवान।
उत्पादन बढाने की फ़िराक में
भाजी तरकारी तक में रसायन घुल गए हैं
तरक्की के नाम पर
अपने आधार को ही
नष्ट करने पर तुल गए हैं।
बेतहाशा नगरीकरण और
उद्योगीकरण के ज़माने में
चिमनियों से निकल रहा है
जहरीला धुआं
बेतरतीब से बढ़ते वाहन सड़कों पर
चलना सांस लेना भी मुहाल है,
जैसे मौत का कुआँ।
