अकड़ूँ धुँआ
अकड़ूँ धुँआ


राख के ढेर में हाथ घूमा कर देखा इस उम्मीद से बार बार ,
शायद किसी अकड़ी हड्डी का बड़ा सा टुकड़ा मिल जाये ?
मायूसी झलक पड़ी , उदासी बड़ गयी , पर उम्मीद थी बरकरार ।
ऐसा हो नहीं सकता , सब भस्म हो जाये ।
एक चिंगारी से सारी अकड़ चली जाये ।
छान छान कर देखी गयी राख जब ।
महीन से कुछ टुकड़े मिले तब ।
तो सारी अकड़ की वजह यह छँटके थे ?
हाथ से छटंको को धीरे से सहलाया ।
पर अकड़ का कोई निशान नज़र नहीं आया ।
मैं सोच में पड़ा था , यूँ ही खड़ा था ।
पहेली अकड़ की अबूझ , सुलझाने चला था ।
तो क्या धुँए के साथ चिता के ,
अकड़ उड़ जाती हवा में ?
बाक़ी बची राख तो ,नरम है बिन अकड़ के ।
तो हवा में या हवा पर सवार धुएँ में है कुछ ऐसा ।
बनाता जो नर्म राख को ,अकड़ूँ सूखी लकड़ी जैसा ।
बिखर गया रुआब , उड़ गया गुमान बन कर सफ़ेद धुआँ ।
बैठा हूँ अनसुलझी अकड़ की पहेली लिये ।
सुलगती , अधजली और ठण्डी पड़ गई चिताओं के बीच ।