अजीब दुनिया
अजीब दुनिया
बड़ी अजीब,
दुनिया है....तेरी
बन के धर्मात्मा,
गीता उपदेश सुनाती हैं।
भीतर से,
अपने मतलब को,
पूरा करने के लिए,
शकुनि की तरह,
चालबाजियों की,
विसात सजाती हैं।
दूसरे ही पल,
बुरा नहीं करना,
लम्बा भाषण दे जाती है।
फिर कानों में,
कानों से,
कितनी बातें कह जाती है।
झूठ और सच को बड़ी,
सफाई से तराश लाती है।
सच सुन नही पाती ।
झूठ के पुलिंदे उठा लाती है।
फिर अपने पापों को,
छुपाने के लिए गंगा नहा आती है।
कितने नाटकीय सोपानों को,
एक साथ कर जाती है।
बुरा जमाना आ गया।
यह राग तो गाती हैं।
अपने भीतर के जहर को,
कहाँ निकाल पाती है।
प्रेम की बातें तो करती है।
प्रेम से खाली ही रह जाती है।
कितनी सुंदर दुनियाँ बनाई तूने।
क्या अहसास छीन लिए
जब लोगों से दुनियां सजाई तूने।
यह दुनिया तेरी
कितने चेहरे लिए जीये जाती है।
बदल जाती है मतलब से
मतलब से नये चेहरे लाती है।
