अधूरा
अधूरा
धरा, समुद्र, या हो गगन,
सब संसार के ही भाग है,
किन्तु क्या ये सब हैं पूर्ण,
या यह सब भी अधूरे है ?
मानव, दानव, पशु-पक्षी,
वृक्ष, फूल, या फल,
जलचर, निशाचर, या हो भक्षी,
क्या यह नहीं एक अधूरा छल ?
अधूरा तो है समस्त संसार,
केवल आप नहीं, केवल मैं नहीं,
तो क्यों केवल स्वयं को अधूरा समझकर करे
आत्मविश्वास का संहार,
जब जीवित हम से ही होती है मही ?
जैसे आपको लगता होगा कि आप है अपूर्ण,
और आपको केवल घेरे हुए है घने अब्दि,
वैसे ही 'स्व' भी लगता है अपरिपूर्ण,
किन्तु यही बनाता है हमें स्वाभिमानी,
स्वावलंभी आदि-इत्यादि।
कल के क्रंदन से क्यों खोना है आपको आज का सुख,
अधर पर रखकर मुस्कान, रहिए अनंत तक प्रसन्न,
मत दीजिए ऐसा सुयोग कि आपको तोड़ सके ये दुख,
यही बना पाएगा आपके जीवन को सम्पन्न।
सबके जीवन में है संताप,
दुख बिन नहीं पूर्ण है यह धरा,
यदि सदा करते रहेंगे विलाप,
तो स्मरण रखना, अवसर पाकर भी खो देंगे,
और रह जाएँगे अधूरा।