अधीर अंतर्मन
अधीर अंतर्मन
क्यों छेड़ते हो ऐसे कान्हा, रोज़ मेरे स्वप्नों में आकर।
समेट लूँ तुझको अपने इन कजरारे नयनों में भरकर।।
नहीं मेरे घनश्याम, इन हीन नैनों का तुझसे क्या जोड़।
तभी तो ढूंढते रहते ये तुझको, वृंदावन के छोर-छोर।।
सोचती हूँ, छुपालूँ तुझको लाल-लाल हिलकोरों में।
सुगंध तेरा झूमेगा फिर मेरे तन-मन के कोनों में।।
प्रेमरस में विलीन होकर तुझसे मिलने आऊँगी कृष्णा।
जमुना तट पर मिलेंगे दोनों, शमन होगी मन की तृष्णा।।
ओढ़ लूँगी तेरी भुजाएँ कदंब के वृक्ष तले।
कदंब से बढ़कर तेरा सुगंध मेरी रोम-रोम में खिले।।
श्रीहरि, चल विलीन हो जाये इस यमुना तट के सौंदर्य में।
फिर न सताएंगी स्वप्ने और असीम शांति होगी इस अधीर अंतर्मन में।।

