अब न पूछो उन सवालों को
अब न पूछो उन सवालों को
बादल चुका है इश्क़ की मयूख सात रंगों में।
फैल रहा है चारों तरफ अंधियारा बनकर।
मै गायब हुआ उन्हीं अंधियारों में पागल पंछी की तरह।
नहीं प्रकाश पाया किसी के सहारे, किसी के साथी बनकर।
जो गुजर चुके हैं इन आंधियों से।
कल हो या न हो अब नहीं मिलेगी, टूटे पत्ते इन आंधियों के।
अगर मिल भी जाता किसलय पत्ते बिना धूल के।
मैं कब का न चूम लेता, मिट्टी के कण बन के।
अब न पूछो उन सवालों को , उलझे जंजीर की तरह है।
ऎठन है इनमें कई कड़ के, शख्त बन गई है।
अगर तोड़ कर निकलना भी चाहा, प्यार के चादर ओढ़ कर।
नहीं ठिठुरना पड़ता बेवफ़ाई के जाड़े में, चादर न मिलने पर।
जीता रहा आंसू पी कर प्रेम के रस न मिलने पर।
बह गया था बहते सागर में मन मेरा।
चले गए हम दूर सफ़र में अकेले ही बहकर।
कोई नहीं आया हमे बचाने, तड़प उठा था मन मेरा।
प्याला बना मै हीरे का मधुशाला उसको बनाना चाहा।
गरल बनी वो हर नस में मेरे बूंद बूंद टपक कर।
अब अहसास ही क्या होगा इन बातों को।
पर मुझे था हर वक्त साथ बिताने का, सच्चे मित्र बनकर।
