आरंभ
आरंभ
🌿 आरम्भ 🌿
📝एक पाती जीवन को
(“आरंभ” — अस्तित्व का आलोक)
✍️ श्री हरि
🗓️ 29.72025
प्रिय जीवन,
आज तुम्हारे ही द्वार पर खड़ा हूँ — एक मौन प्रश्न बनकर।
क्या तुम ही हो वह जो हर आरंभ के पीछे छिपा है?
या वो भी हो — जो हर अंत के बाद फिर से मुस्कुराता है?
तुम्हें जानने की चाह में मैं कितनी बार टूटा, बिखरा,
पर हर बार जब थमा… तुम्हीं ने फिर थामा।
तुम्हारा आरंभ कहीं बाहर नहीं —
मुझमें ही था, मुझमें ही है।
जब पहली बार माँ की गोद में हँसा था,
वो भी एक आरंभ था — जीवन की बोली सीखने का।
जब पहली बार ठोकर खाई थी,
वहीं आरंभ हुआ था — खड़े होने का हौसला।
जीवन, तुम “आरंभ” हो — हर संभावना का।
नदी की तरह बहते हो,
लेकिन स्रोत की ओर लौटते नहीं —
बस आगे, आगे, और आगे।
कभी लगता है — जीवन तुझमें स्थिरता नहीं,
पर फिर समझ आता है —
आरंभ कभी ठहरता नहीं, वो तो बहता है सृजन की ओर।
जब आँखों में सपने जागते हैं,
जब हृदय में कुछ नया गूँजता है,
जब पुरानी दीवारें गिरती हैं,
और नये द्वार खुलते हैं —
वहीं तुम आरंभ बनकर खड़े होते हो, मुस्कुराते हो।
लोग पूछते हैं —
कब तक चलेंगे? कहाँ पहुँचेंगे ?
मैं बस कह देता हूँ —
जहाँ जीवन का नया अर्थ मिलेगा — वहीं एक नया आरंभ होगा।
कभी मृत्यु से डर लगता है —
पर तब याद आता है —
मृत्यु तो केवल एक परदा है,
जिसके पार आरंभ की नयी लोरी गूँजती है।
जीवन, तुमने सिखाया —
हर अंत एक अधूरी कविता नहीं,
बल्कि एक नई रचना की भूमिका है।
मैं तुम्हें पा नहीं सकता —
क्योंकि तुम रुकते नहीं।
पर मैं तुम्हारे साथ चल सकता हूँ —
हर उस जगह, जहाँ “पहली बार” लिखा जाता है।
प्रिय जीवन,
अब मैं हर आरंभ को अपनाना चाहता हूँ,
भय के बदले उत्साह के साथ,
संकोच के बदले समर्पण के साथ।
क्योंकि आरंभ का अर्थ केवल जन्म नहीं होता —
बल्कि हर वो क्षण है,
जब आत्मा किसी सत्य को पहली बार छूती है।
तुम्हारा पथिक —
जो हर रोज़ स्वयं से फिर मिलना चाहता है,
हर रोज़ नव्य भाव से —
आरंभ करना चाहता है।
🌅
“मैं हूँ, इसलिए आरंभ है —
और जब तक मैं हूँ,
हर क्षण एक नवीन आरंभ है।”
— श्री हरि 🌾
