आपबीती
आपबीती
जिनके ज़मीन और औलाद नहीं रहते,
उनको चैन की नींद नही आती।
पर, दुनिया उम्मीद पर हैं कायम,
फूल खिले या ना खिले,
हर दिन बसंत हैं।
मैं अपनी आपबीती सुनाती हूँ,
किसी से करुणा
अर्जन करने के लिए नहीं,
इसलिए कि मैं हार सकती हूं
पर मेरी "उम्मीद" नही हार सकती,
मैं उम्मीद की मानवीकरण हूँ।
एक दिन कोई ज़मीन
अपना लेगी मुझे,
कोई निष्पाप फूल आंगन में
खिलेंगे हमारे।
क्योंकि पतझड़ को भी
अल्पविराम चाहिए अपने
दुष्कर्मो के प्रायश्चित के लिए।
इसलिए, वह वसंत को
आह्वान करता है।
उम्मीद से देखो,
पतझड़ भी बसंत ही हैं,
जब माटी को सूखे पत्ते
आलिंगन करते हें
टहनी से छिन्न होके भी,
अपने मनमौजी आकृति बनाते हैं।
वही पतझड़ के
सूखे पत्तों को किसी
कोड़े किताब में चिपका लो,
बसंत की सृष्टि अब भी होगी।
