आँगन की कुर्सी
आँगन की कुर्सी
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आजकल
मेरे आँगन की ये कुर्सी
बस अकेली ..
अपने से बातें करती
कभी जागती
कभी सोती ....
बस किसी तरह बुढ़ापा कट जाये
यही रहती सोचती ....
उदास है आँगन
उदास हर कली
किसी के इंतजार में
द्वार पर नजरें लगी।
स्कूल से आए बच्चे डरते हैं
कहीं दादा दादी पढ़ाई न पूछ लें ,
बड़े डरते हैं कहीं कुछ
फरमाइश न कर लें ।
उनसे बातें करने के बच्चे नहीं हैं आदि ,
बड़ों को लगती है समय की
बरबादी ।
इसी आँगन में सभी चहकते थे
रातों को आसमान के तारे गिनते हैं
हाय डेड के सिवा अब कुछ नहीं होता
गल्ती से बचपन का सामना हो गया
वो भी अभी आया कह मोबाइल में खो गया।
आँगन की रौनक बस बुजुर्ग रह गए ..
किसी की आवाज को जो तरस रहे
बुजुर्गों से नहीं है अब कुछ लेना देना
जब तक हो फायदा है तब तक ध्यान देना ।
समय की कमी ने सब बदल दिया
ज़माने की होड़ ने हेर फेर कर दिया।
हमारे संस्कार , बुजुर्गों का तजुर्बा
अब कहीं छूटते जा रहे
चाह कर भी हम सामञ्जस्य
नहीं जोड़ पा रहे ।
इसी लिए संस्कारों की नींव हिल रही है
हर रोज़ अनहोनी घटना घट रही है ।
इसी आँगन में ..
जिन्होने था अंगुली पकड़ चलना सिखाया
उन्ही को सहारा देने से मन क्यों कतराया,
अपना किया तब समझ आयेगा
जब अपना बच्चा ये सब दोहरायेगा।
बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होए
अगर तुम न पूछोगे तो तुम्हे भी पूछेगा न कोए ।
समय रहते संभल गये यदि हम सब
अपना बुढ़ापा भी हो जायेगा सफल तब ।
आँगन की तब हर कली खिल जाएगी
कोई कुर्सी न उदास बैठी पाएगी ।