आखिरी उड़ान
आखिरी उड़ान
परिंदों को कैद करने वाले,
यह सोचते हैं ‘वो उड़ ना जाए’,
यह क्यूँ नहीं सोचते कहीं
‘वो मर ना जाए’
इंसान की जब जमीन छिनती है
तभी उसे परिंदों के खुले आसमान की
कीमत पता चलती है
जिनको खुदा ने परों से नवाज़ा है,
इंसान उन पर पहरा लगा रहा है
और खुद ‘कागज़’ को पर लगा के,
कमान अपने हाथ में ले
आसमान में उड़ा रहा है !
मैंने सलाखों के पीछे बंद
उन मासूमों को देखा,
उनकी चह्चाहट
उनके खुश होने का
भुलावा दे रही थी,
उनकी आँखें देखी जो
आसमान में उड़ती पतंग की ओर थी,
बहुत कुछ कह रही थी
वही बात में आप तक
पहुँचाना चाहता हूँ,
“परिंदा पिंजरे से झांकता है,
सोचता है में भी पतंग होता
कुछ पल के लिए ही सही
आसमान नसीब होता,
मैं भी अपने जहाँ के करीब होता
दम तोड़ता भी तो उड़ने की कोशिश में,
इस तरह घुट कर दीवारों में नहीं
डोर होती मेरी सहेली ले चलती मुझे
अपने साथ हवाओं की ओर,
वहां मेरे साथी परिंदे भी होते
अपनी सहेलियों के साथ
लड़ जाते पेंच, उलझ जाती,
टूट जाती, छूट जाती डोर
खाली रह जाते जो जकड़े थे मुझे हाथ
और में.. आजादी की सांस लिए..
निकल पड़ता शायद अपनी
‘आखिरी उड़ान’ के लिए..
एक उम्मीद भी है शायद
बन जाता मैं ‘नन्हे रखवालों’ की लूट
फिर उड़ता आसमान में,
फिर डोर जाती टूट !“
