आख़री फूल
आख़री फूल
एक कली, छोटी सी, सोई थी ऑंखें मुंद,
इक आहट हुई, ऑंखें खोली, पड़ी जो उसपे बूँद।
आँखें खोल मल मल देखा उसने चारों ओर,
वह अकेली, सुने बाग में, साथी न कोई और।
हुई अवाक वो बेचारी, किया जो उसने गौर,
सुना था जैसा माँ से अपनी, ये वैसी न थी भोर।
न पंक्षी का कुंजन ही था, न भँवरों का गान,
न शीतल वायु छेड़ रही थी, मीठी मीठी तान।
हर तरफ एक सन्नाटा था, हर एक थी उदासी,
धरती जैसे लग रही हो सदियों से हो प्यासी।
एक मुरझाई पत्ती से आख़िर, उसने किया सवाल,
'क्या धरती ऐसी ही है, ये है उसका हाल??
न वृक्ष, न हरियाली है, न ख़ुशबू, न गुलशन,
न माली है, न भ्रमर है, ये कैसा है उपवन?'
पत्ती बोली, 'सुन मेरी प्यारी, सुनाऊँ तुझे एक कहानी,
ये धरती भी हरी भरी थी, जब मिलता था पानी...
अब ख़त्म हुआ जल, सूखा पड़ गया, सुखा सारा देश,
पौधे मर गए भूखे प्यासे, बचा न कोई शेष।
उस बात की सज़ा हमें मिली है, की न जिसकी भूल,
वो धरती का शेष बूँद था, तुम हो आख़री फूल।।'
