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Shiveti Verma

Abstract

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Shiveti Verma

Abstract

कल, आज और कल।

कल, आज और कल।

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पहचान बनाने निकले थे

अपनों को ही भूल गऐ,

कल सजाने के लिए

आज बिखेरते रहे।


बीते हुए उन लम्हों को

क्यूं तूने फिर साथ लिया,

दुनिया के उस सन्नाटे को

अपने रिश्तों का घर दिया।


जो जाना था चला गया

अब ना आएगा वापिस,

इक बार पीछे मुड़ के देख

वह मंज़र के बस नज़ारे थे।


जीना तुझे है आज में

क्यूं कल को भूलता नहीं,

इक कल था वो जो चला गया

इक कल का कुछ पता नहीं।


जीवन के इस संघर्श में

जीवन को न दाव लगा,

अपने कल की चिंता में

तू आज को न सूली चढ़ा।


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