अजनबी
अजनबी
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क्यूं उस अजनबी से नज़र जा मिली,
जिससे मेरी यह ज़िंदगी न जुड़ी,
क्यूं उन आंखों में कुछ बातें थीं,
जिनसे होनी मुलाकातें थीं!
नज़रों के हेर फेर ने,
मुस्कुराहट बिखेर दी,
लबों की लकीरों में,
सरसराहट छेड़ दी।
वह बीतता हुआ पल,
क्यूं रुक न गया,
उस सन्नाटे में कुछ,
रह सा गया!
लबों पर मुस्कुराहट,
अब थम थी गई,
न जाने क्यूं अजनबी,
चल पड़ा कहीं।
दूर तक निगाहों ने,
उसे पुकारा बार बार,
वो तो न मिला,
पर मिला नया दीदार।
नए हेर फेर ने,
फिर लबों को छेड़ दिया,
अबकी बार खुद पर ही,
मुस्कुराना आ गया।
क्यूं राह चलते अजनबी,
कई बार अपने से लगते हैं,
क्यूं कुछ अपने,
अजनबी होने को मरते हैं!