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आफ़ताब की सीढ़ियाँ

आफ़ताब की सीढ़ियाँ

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कभी क्या ऐसा हुआ,

कि उस वक्त की,

उम्र-सी बेड़ियों को तोड़ता हुआ,

वो आफ़ताब,

किसी हुस्न-ए-मिस्बाह की,

आरज़ू की तालाब की सच्चाई,

को महसूस करके,

उसी खाक्सार-ए-रोशनी को,

एक नयी इबादत दे रहा है?


कभी क्या ऐसा हुआ,

कि उन बुझे हुए अंगारों को,

उन अश्कों की ज़रुरत पड़ी,

तो अगर यह सच है,

तो एक धूल में लिपटी हुई,

वो बात मुझे याद आ रही है।


कि उन साँसों और हवाओं की,

छोटी-सी कश्मकश में,

उन बुलंद या बंद आवाज़ों की,

ज़िन्दगियों के साए में,

उन ख़्वाबों के पनपते,

अफसानों को इस जहाँ में,

नज़राना देने के लिए,

इसी आफ़ताब की उस,

जिस्म-ए-मालिक को ज़रुरत थी,

जिससे उस आबाद ख्वाब,

को वो महसूस कर सके,

जिसके बाद जब वो पहुंचेगा,

उस तकबीर-ए-मुकाम पर,

तब उसे ज़रूर कुछ याद रहेगा।


वो याद भी ख़ास है,

जिसमें उस दौड़ से सनी हुईं,

वक्त में रूबरू होतीं,

तकलीफों का समाँ,

जब उस ख्वाब-ए-हुस्न को,

पैर बढ़ाने की हिम्मत देता है,

जिसमें उस आफ़ताब

का भी इश्क़ है,

ताकत की नींव बना हुआ,

तब लगता है,

कि हर ख्वाब के लिए,

तैयार हैं,

वे आफ़ताब की सीढ़ियाँ।


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