Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Navnit Nirav

Tragedy

0.0  

Navnit Nirav

Tragedy

लौटना

लौटना

1 min
7.8K


इस्पात नगरी में उस शाम मूसलाधार बारिश थी। वो मुझे टैक्सी में बस स्टैंड छोड़ने आयी थी। टिकट कटाकर मुझे बस में बिठाते हुए रश्मि बिलकुल चुप थी। उसकी आँखों में बेरुखी के साये थे। मुझे फिर उसकी बात याद गयी

-   ‘मरना है तो अपने शहर में जाकर मरना।‘

उसकी आवाज़ में एक रूखापन था, जो मेरी कारस्तानियों का नतीजा था।

बस चल चुकी थी। तक़रीबन बारह घंटे की यात्रा। वह भी आठ वर्षों के बाद। एक शहर जिसे मैं भूल आया था। जिसने मुझे जीवन में आगे बढ़ने के उद्देश्य से विदा किया था...दूसरे शहर बसने के लिए नहीं।

वे मेरी जवानी के दिन थे। हालाँकि मैं अब भी खुद को नया महसूस करता हूँ...लेकिन वो रूमानियत अब जाती रही। जब इस शहर के मशहूर जुबली पार्क में किसी शाईर की तरह बलौस अंदाज से रश्मि से कहता था– “जब मैं मर जाऊँ, तो मेरा मेरा दिल इस पार्क के किसी कोने में दफना देना। इसकी एक-एक धड़कन तुम्हारे शहर के नाम है।”

...आज उसी शहर से उसने मुझे विदाई दे दी। ना मालूम कितने दिनों के लिए...शायद हमेशा के लिए।

मैंने मोबाईल से एक नंबर खोजकर निकाला। विगत कई सालों से जिसे संभाल कर रखा था। पर डायल कभी नहीं किया। कि बस उसके आने इंतजार किया...।

बस अपने गंतव्य की ओर थी। मैंने कांपते हाथों से उस नंबर को डायल कर दिया। पुराने लोग नया नंबर नहीं बदलते। देर तक रिंग होती रही। उधर से एक कांपती हुई सी आवाज़ आई – ‘हॅलो!’ मैं खामोश रहा। हॅलो...हॅलो की आवाज आती रही। मन को कड़ा करते हुए मैंने कहा- “पापा...!!!“

अब उधर खामोशी थी। मैं इधर से कुछ बोलने की कोशिश कर रहा था। लेकिन मेरी जुबान जैसे तालू से चिपक गयी थी। उधर फोन पर दूसरी आवाज उभरी थी।

-   “रवि! तुम ठीक तो हो बेटा?” आवाज में थोड़ी अकुलाहट थी। अब माँ थीं।

बेवक्त तो केवल बुरी खबरें ही आती हैं। इस बार मैं जा रहा था।  

-   “माँ...मैं वापस आ रहा हूँ।“ मेरा गला भर्राया हुआ था।

देश की राजधानी में आंदोलन, विरोध प्रदर्शन विगत कुछ वर्षों में बढ़े हैं। जिनके छींटे गाहे बगाहे देश के हर छोटे-बड़े शहरों पर भी पड़ते हैं। ऐसे ही एक ‘बहुचर्चित रेप कांड’ पर हुए भारी प्रदर्शन ने मेरे जैसे कितने लोगों के सोचने-समझने का तरीका बदल दिया। नतीजतन मैंने एक बड़ी कंपनी की जॉब छोड़ दी। जन-आंदोलन में भाग लेना जुनून बन गया था। तब शादी को पाँच साल होने को थे। रश्मि तब तक मेरे साथ थी...मेरे विचारों के साथ। उसे लगता था कि मैं कुछ दिनों में फिर वापस नौकरी पर लौट आऊँगा। सोशल सर्विस का खुमार बरसाती नाले की तरह है। पर यह हो न सका। यहीं से मेरे और रश्मि के बीच वैचारिक मतभेद शुरू हुए। एक वेल सेट्टल्ड जॉब छोड़ कर ये गली-गली, शहर-शहर भटकना उसकी समझ से परे होता जा रहा था। हक़ीक़त क्या थी मुझे भी नहीं मालूम। बस बहुत सारी बेबुनियाद बातें जो हमारे आसपास तैर रही थीं, हम सबको उससे ‘आजादी’ चाहिए थी।

एक घर था। घर की आर्थिक जरूरतें भी थीं। जिसे पूरा करने में मैं चूकता जा रहा था। रश्मि को एक सरकारी प्राथमिक स्कूल में सरकारी नौकरी मिल गयी थी। शहर से थोड़ी दूर। उसने स्कूल के कामों में खुद को व्यस्त कर लिया। इधर आंदोलनों का ज़ोर बढ़ा और मेरा रहन सहन अनियमित हुआ। सच तो यह था कि मैं उसपर काफी हद तक आश्रित था। हमारे रिश्तों में तल्खी बढ़ चली थी। जहां-जहां अभी तक प्रेम बैठा था वहाँ एक अबूझ चिड़चिड़ाहट ने घर बनाना शुरू कर दिया। दिन में वह नहीं होती थी। रातों को मैं बाहर रहने लगा था। धीरे-धीरे मैंने घर आना कम कर दिया। बाद में उसने मेरा इंतजार करना भी।

अचानक एक रात पेट में भयंकर पीड़ा हुई। अगले ही दिन अस्पताल में अपेंडिस का ऑपरेशन हुआ। मैं अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुआ था कि दिल्ली में असहिष्णुता और आज़ादी के आंदोलनों ने अचानक आग पकड़ ली। फिर वहाँ की एक यूनिवर्सिटी में ‘देशभक्त बनाम देशद्रोही’ पर हँगामा। मैं भी जोश से भर उठा था। अपनी हालत को नजरअंदाज करते हुए शहर के तमाम प्रदर्शनों में भाग लेने लगा। रश्मि ने एकाध बार टोकना चाहा। लेकिन मुझे रोक पाना उसके लिए संभव न हो सका। करीम सिटी कॉलेज, टाटा कॉलेज सहित तमाम कॉलेज सरकारी-गैर सरकारी संस्थाओं के युवाओं के साथ बड़े प्रदर्शन में किए। आंदोलन के उग्र तेवर की वजह से कुछ धर- पकड़ हुई। कुछ दिन भीतर भी रहा। वह कठिन समय रहा। अब हर बात के दो पहलू थे। सबके अपने-अपने सच थे और अपने-अपने झूठ। मेरे घर में भी कमोबेश यही स्थिति थी। जब भी मैं घर में होता, किसी न किसी बात पर हमारी बहसें चलती रहती। बेरोजगार आदमी बेकार भी समझ लिया जाता है।

ऑपरेशन के बाद जो आराम मिलना था वो पिछले कुछ महीनों से मिला ही नहीं था। धीरे-धीरे शरीर शिथिल पड़ने लगा था। आराम न मिलने की वजह कमजोरी बढ्ने लगी थी। मैं आदतन कुछ गोलियों के बल पर उसे नजरंदाज़ करने की भरपूर कोशिश में था।

एक शाम घर में बिस्तर पर पड़ गया। खून की उल्टियाँ शुरू हो गईं। रश्मि स्कूल से थकी हुई लौटी थी। मुझे इस हाल में देखा तो परेशान हुई। मुझे कुछ डॉक्टरों से दिखाया। तुरंत थोड़ी राहत। लेकिन विशेष लाभ होता नहीं दिखा। उसके स्कूल की सीमित छुट्टियाँ भी मेरे इलाज में मददगार नहीं हुई। उसकी परेशानी बढ़ गयी थी। स्कूल और घर के बीच एक अकेली... रश्मि।

थोड़े दिनों के बाद उसने फिर से स्कूल जाना शुरू कर दिया। इधर मैं घर में लेटा दिनभर दर्द से तड़पता रहता। शरीर शनैः-शनैः क्षीण हुआ जाता। मैं आंदोलनों से कटता जाता।   

एक शाम में मैंने रश्मि से अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े कहा- ‘लगता है अब मैं नहीं बचूँगा।‘

वह किसी काम में उलझी पड़ी थी। उसने पलटकर दो टूक शब्दों में जवाब दिया - ‘मरना है तो अपने शहर में जाकर मरना।‘

उसे मेरे बीमारी और मेरे रवैये ने बेहद ही परेशान कर दिया था।

बस अपनी रफ्तार से चल रही थी। मैं अपने ख्यालों में खोया हुआ न जाने कब सो गया।

-   “साहब उठो...आखिर स्टॉप आ गया है।“ मुझे कृशकाय देख कंडक्टर ने मुझे छूकर बोलना मुनासिब नहीं समझा।

बस से मैंने बाहर झाँका। सामने बड़े होल्डिंग पर लिखा था- गढ़वा जिला बस स्टैंड। मैंने अपना बैग पीठ पर टांगा। लड़खड़ाते कदमों से बस से नीचे उतरने लगा। आसपास कई ठेले वाले लगे थे। कोई मूँगफली बेच रहा था तो कोई भुट्टे। कुछ ऑटो रिक्शा वाले बस से उतरने वालों से साथ चलने के लिए हल्की जबर्दस्ती भी करने लगे थे। मैं हल्के मन से सबको मना करता रहा। सामने थोड़ी दूर एक ऑटो खड़ा था। उसके सामने हाफ़ बाजू वाली सफ़ेद शर्ट पहने एक बुजुर्ग खड़े थे। उनके साथ हल्के पीले रंग की सूती साड़ी में एक अधेड़ उम्र की महिला भी थीं। जो बस की तरफ़ इंतजार भरी नजरों से देख रहे थे... - ‘माँ-पापा।’ मैंने मन ही मन ये शब्द दुहराये। जिनको सिर्फ दुहराना ही आसान था मेरे लिए। धीमे क़दमों से चलता हुआ मैं उनके पास चला आया। अभी तक वे मुझे देख नहीं पाये थे। उनके पैर छूये। एकबारगी उन्होने मुझे पहचाना नहीं। माँ ने कुछ सेकेंड्स कुछ पहचानने की कोशिश की। पापा ने मेरे होने का अनुमान लगा लिया। वो लगातार मेरी तरफ देख रहे थे। पर मुझे नहीं देख रहे थे। आठ सालों में कुछ ज्यादा ही बूढ़े हो गए हैं।

ऑटो स्टार्ट हो गया था। बीच वाली सीट पर आमने सामने माँ और मैं थे। पापा, माँ की बगल में बैठे बाहर देखते रहे। माँ को मेरे दुबले हो जाने की चिंता हो आई थी। आँखों में आँसू थे। जिन्हें वो बेतरह संभालने की कोशिश में थीं। बहुत सारे सवाल थे उनके। मुझसे नहीं... उनके अपने बेटे से। जिसको इस हाल में उन्होने तो इस शहर से विदा नहीं किया था...

-   “माँ, हमारी शादी कब करा रहे हैं आप लोग?” मैंने पूछा था।

-   “तुम्हारे पापा इस बारे में कुछ कहते ही नहीं...”

-   “क्यों...क्या उन्हें अपने बेटे की शादी नहीं करवानी?”

-   “उनका कहना है कि जब एक बार कोर्ट में शादी हो गयी, तो दुबारा क्या करना...”

अब जितना पापा को मैं समझ पाया था। उन्हें लगता था कि मुझे अब यहाँ नहीं रहना चाहिए। कहीं दूर चले जाना चाहिए। लोगों को बताने में आसानी होगी। जब अनुमति नहीं ली तो फिर स्वीकृति का क्या मतलब? सचमुच मैं बहुत दूर हो गया था।

वे इस तरह की छोटी-बड़ी बातों के कुछ बिखरे-बिखरे दिन थे। चंद खुशियों के तिनके मैं इस शहर से ले गया था। सोचा था उन्हें जीवन भर सहेज कर रखूँगा। जो रिक्तता है वो भर जाएगी। पर सबकुछ आपके मुताबिक तो नहीं होता न। वो एक धागा जो मन के भीतर कहीं उतरता हुआ आपको जोड़े रखता है। वो तो हमारे बीच था ही नहीं। जिसका सिरा उसने भी पकड़कर छोड़ दिया था।

यह शहर गेटवे ऑफ छोटनागपुर के नाम से मशहूर है। तीन राज्यों की सीमाएं इस जिले से लगती हैं। शहर में अलग-अलग राज्यों के लोग बसे हैं। पापा भी नौकरी के सिलसिले में तकरीबन तीस बरस पहले यहाँ आए थे।  

सड़क पर ऑटो तेजी से भाग रहा था। अचानक हमें झटका लगा। सड़क पर अभी भी गड्ढे हैं। बरसात का पानी उनमें बजबजा रहा था। इस शहर में सिर्फ इतना ही बदल पाया है कि पहले यह पैडल रिक्शे पर चलता था, अब ऑटो रिक्शे पर। विकास के नाम पर कुछ दुकाने बढ़ गयी, मकान बढ़ गए हैं। इन सतही अनुभवों से शहर के विकास की परिभाषा गढ़ने की कोशिश की थी मैंने।

इन्दिरा गांधी चौक से ऑटो शहर से बाहर जाने वाले रास्ते की ओर मुड़ गया। दानरो नदी के पुल से हम गुजर रहे थे। बरसाती नदियाँ इन दिनों उफान पर होती हैं। दानरो भी थोड़े ही दिनों के लिए सही, वो पूरे शबाब पर है। छठ पर्व पर इनके किनारों से शादियों जैसा उल्लास छिटकता है। जो इस शहर के बेहतरीन अनुभवों में एक है।

दानरो नदी के दोनों किनारों पर कई गाँव हैं...जिनसे कई सहपाठी रहे थे मेरे।.... विद्यावती भी। छठी कक्षा तक वो मेरे साथ पढ़ी थी। दानरो के उस पार कहीं उसका गाँव था। इसी बरसात के मौसम में नदी पार कर स्कूल आती थी। दिन भर गीले कपड़ों में ही पढ़ाई करती और फिर लौट जाती। वो कहाँ गयी मुझे नहीं मालूम। साथ पढ़ने वाले बहुत से लोगों के बारे में हम नहो सोचते। लेकिन वो हमारे अवचेतन में ताउम्र बने होते हैं। अपने लोगों की तरह, शहर भी तो ऐसे ही सांस लेता है हमारे भीतर।

दानरो मेरे बचपन से भी पहले से यहीं बहती रही है। शायद! शहर से प्यार है इसे। मेरे जैसे लोग किसी के प्यार के नहीं। पालयनवादी होना जिनकी नियति है।

शहर के बाहर तकरीबन आखिरी छोर पर अपना घर आ गया। ये वो घर नहीं है जिसे मैं छोड़ आया था। माँ बता रही थीं कि रिटायरमेंट के बाद पापा ने बनवाया । मैंने अनायास ही पूछ बैठा था

-   ‘अब...???’ रिटायरमेंट के बाद अपने गाँव वाले शहर जाना था न!‘

-   ‘जाना था। सारे अपने लोग तो वहीं हैं...पर किस मुंह से जाते।’ तो टूक शब्दों में माँ बोलीं। उनका इशारा मेरी तरफ़ था। शायद इसके लिए भी मैं जिम्मेदार था।  

पापा ने पूरी नौकरी किराये के मकान में इस बात को कहते हुए काट दी थी कि

-   “रिटायर्ड होकर अपने शहर जाऊंगा।”

जब अपने, अपने नहीं रहे। तो उन्होने इस शहर को अपना लिया। माँ-पापा इस शहर में विगत तीस वर्षों से बनाए-निभाए रिश्तों के साथ ही तो हैं ।

अगले दिन डॉक्टर ने अपने निजी अस्पताल में मुझे दाख़िल कर लिया। कुछ ‘मल्टीपलडिजिज़’ जैसी कोई बात वो पापा से कर रहे थे। ऑपरेशन में भी किसी लापरवाही का जिक्र था। सबसे बढ़कर जो आराम चाहिए था वो नहीं मिल पाया था। माँ थोड़ी परेशान-विचलित सी दिखीं। पापा के चेहरे पर शिकन न थी। वे ज़्यादातर समय घर में होते। माँ अस्पताल में मेरे पास। पर निश्चित समय पर उनका आना-जाना होता। सारी जरूरतों का प्रबंधन, डॉक्टर से मिलकर राय विमर्श करना...जो कुछ उनसे संभव था। सब हो रहा था। मुझे आज तक उनकी जरूरत थी। ये महसूस कर पा रहा था। मेरे लिए यह कठिन समय था। शायद उनके लिए भी।  

दिन गुजर रहे थे। लाख झंझावातों के बावजूद यह शहर जी रहा था और शनैः-शनैः अपनी जिजीविषा का बूंद-बूंद अर्क मानों मेरी रगों में भी भरता जा रहा था। अस्पताल की खिड़की से बाहर बारिश में दिखने वाली हरी नीली पहाड़ियों पर ठिठके बादलों के टुकड़े बुझी हुई आंखों को सेंक पहुंचाते थे।

तकरीबन दो हफ्ते तक लोग अस्पताल में माँ-पापा से मिलने आते रहे। मुझे देखने के लिए भी। मैंने अनुमान लगाया कि तरह-तरह की बातें हो रही थीं। खराब तबीयत को लेकर कम...मेरी अन्य बातों की चर्चा। माँ के चेहरे पर परेशानियों के भाव थे। जैसे वो कह रही हों... “तुमने हमें कहीं का न छोड़ा। आए भी तो फिर वही पुरानी बातों के पन्ने फड़फड़ाते हुए।“

माँ ने मेरे लिए मन ही मन एक लड़की पसंद कर रखी थी...रमा आंटी की बेटी। शादी भले ही खुद मर्जी से की थी मैंने। लेकिन माँ-पापा से अलग रहने का सोचा नहीं था। पर परिस्थितियों पर आपका नियंत्रण कब रहा है?

कुछ दिनों में डॉक्टर ने अस्पताल से छुट्टी दे दी। माँ को कुछ हिदायतें भी।

घर में माँ ख़याल रखती। पापा अपने स्कूटर से नियमित डॉक्टर के पास ले जाते। जैसे बचपन में दोनों मुझे तैयार कर मेरे स्कूल भेजते रहे थे। सुबह की मॉर्निंग वॉक हो या फिर किसी की सालगिरह- जन्मदिन... मैं उनके साथ जाने लगा। बदलते शहर में दोनों बिल्कुल भी नहीं बदले थे। बदल तो मैं गया था।  

देखते-देखते चार महीने बीत गए। बीच में कभी-कभार रश्मि का कॉल आता रहा। लेकिन वह नहीं आयी। शायद छुट्टियाँ नहीं मिलीं उसे। मैं वापस लौटने की योजना बनाने लगा था।

एक शाम माँ मेरे पास बैठी थीं। उनके हाथ ऊन-काँटे पर चल रहे थे। वे मेरे लिए कोई स्वेटर बुन रही थीं। उनको आभास था कि अब मैं वापस लौटना चाह रहा हूँ...

-   “वापस लौटने की सोच रहे हो रवि?”

-   “हाँ...दीपावली की सुबह चला जाऊँगा? ”

-   “नौकरी तो कर नहीं रहे न!... फिर कोई खास वजह?”

-   “हाँ... नौकरी नहीं रही। पर... कुछ जरूरी काम पूरे करने हैं।” मैंने गहरी सांस भरी।

उन्होने कुछ नहीं कहा। वहाँ थोड़ी देर तक खामोशी छायी रही। मैं उठकर अंदर चला आया। बैठकखाने पापा तेज क़दमों से टहल रहे थे। मुझे अचानक अंदर आया देख वे असहज हो उठे। फिर उन्होने खुद को सामान्य कर लिया। शायद वो मेरी और माँ की बातें सुन रहे थे। मैं चुपचाप अपने कमरे में चला आया।

इतने सालों तक दूर रखकर मुझे लगता था कि रिश्ते-नातों को बहुत सी शिराएँ सूख गयी होंगी, लेकिन पिछले कुछ महीनों ने उनको फिर से उनका हरापन लौट आया। अब मैं हर तरीके से स्वस्थ था।

त्योहारों का सिलसिला चल पड़ा था। दीपावली की शाम बड़ी सुहावनी रही। पूरा मोहल्ला रोशनी से जगमगा उठा था। इस इलाके में अभी छिटपुट नए मकान बने थे। बस्ती तैयार हो रही थी। उस शाम छोटे-बड़े सभी उत्साह से लबरेज थे। माँ मुझे नहा धोकर तैयार होने को कहा। साथ ही नया कुर्ता पायजामा दे गईं। पापा बाजार से लेकर आए थे। रात को लक्ष्मी जी की पूजा के बाद मैं छत पर अकेला बैठा था। बीच-बीच में शहर की आतिशबाजियाँ गुलजार हो रही थीं। आसमान में तारों भरा आकाश था। कितना बड़ा...व्यापक? हम कहीं भी जाएँ ये तारे हमारे साथ जाते हैं। हमारे अच्छे –बुरे कर्मों के साक्षी हैं ये तारे। उनको निहारते हुए मैं अपने बचपन-जवानी के गलियारों में भटकने लगा था।

 “हर छोटी-छोटी बात का खयाल रखा है माँ-पापा ने। फिर मेरी एक और बात को मानने से इंकार क्यों कर दिया। कुछ कमी मेरी तरफ से भी रही होगी। वैसे भी इन चार महीनों में रश्मि की चर्चा एक बार भी नहीं की इन्होने!!! सुबह मुझे लौटना था। कहाँ... यह तय नहीं था... या सिर्फ जो मुझे पता था। मन भारी हो आया था। मैं छत पर लेट गया।

सुबह उठा तो पाया किसी ने रात को शॉल ओढ़ा दी थी...शायद माँ ने।

दिन में माँ-पापा मेरे साथ बस स्टैंड आए। माँ थोड़ी बुझी-बुझी सी थीं। इतने दिन मेरे साथ रहने से उनकी कोई उम्मीद जिंदा हो गयी थी। उसे मैं फिर अधूरा छोड़ रहा था।

बस चल चुकी थी। बस में बैठकर मैंने उन्हें देखा। वे दोनों बस की ओर देख रहे थे। बस स्टैंड से मुख्य मार्ग की ओर बढ़ रहे थी। वे अब भी वहीं खड़े थे। मैंने खिड़की से हाथ निकाल कर हिलाया। दूर पापा का हाथ भी हवा में उठा था... अलविदा कहने को नहीं, आशीर्वाद देने को। मेरी धड़कन अचानक बढ़ गयी थी। इतने वर्षों से जिस कॉल का इंतजार था मुझे, वह सहसा आज आ गया था। मैं अपनी सीट पर खड़ा हो गया। शीशे से अपने पूरा हाथ बाहर निकाल कर तब तक लहराता रहा जब तक वे मेरी नजरों से ओझल नहीं हो गए। 

अब मैं जल्दी से जल्दी रश्मि के पास पहुँच जाना था... उसे ‘थैंक यू’ जो कहना था।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Tragedy