देबुआ
देबुआ
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धानुक टोले का देवेन्द्र यानी पुरे गाँव भर का देबुआ।गाँव भर मे सबसे हंसमुख आदमी है देबुआ, सब का चहेता ।गाँव के बूढों से भी हंसी ठिठोली कर लेता है ।और कुरेद कुरेद कर उनके जवानी के दिनो के उन्ही से सुने किस्से को उन्ही के सामने दोहरा बूढों के चेहरे पर भी मुस्कराहट ले आना तो कोई देबुआ से सीखे।
खेतों मे काम करते हुए गाँव की भाभियों से हंसी ठिठोली तो कभी किसी बूढ़ी काकी के काटे अनाज को अपने काटे अनाज से पहले गंतव्य तक पहूंचा काकी के न जाने कितने आशीर्वाद बटोर लेता है।गाँव का कोई उत्सव देबुआ के बिना बिल्कुल फीका।चाहे उत्सव गाँव के किसी टोले मे हो देबुआ की पुकार सबसे पहले मचती आखिर मेहनती आदमी है कद्र तो होगी ही।किसी का ब्याह हो या गाँव मे किसी की मृत्यु देबुआ सबसे पहले हाजिर।चाहे बारात के स्वागत मे जी जान से मेहनत करनी हो चाहे जुठे पत्तल ही क्यूँ न उठानी पड़े।देबुआ के लिये पुरा गाँव उसका परिवार है।
देबुआ के घर मे कोई नही है।मां बाप गुजर गये हैं।पड़ोस की एक भौजी देबुआ के लिये रिश्ता लाई है।देबुआ का बियाह शांति से हो जाता है।जैसे जैसे परिवार बढ़ता है पैसे की ज्यादा जरुरत देबुआ को एक महानगर की ओर ले जाती है।देबुआ अपनी गर्भवती पत्नी और 4 साल के बेटे को छोड़ बड़े शहर मे चला जाता है ।वहां जब जो काम मिल जाता है वो करता है और एक पूल के निचे गुदड़ी ओढ के सो जाता है पर पत्नी को पैसे भेजना कभी नही भूलता।
साल बीतते हैं ।
जनवरी का महीना था। खबर फैली कि किसी वायरस की चपेट मे पूरी दुनिया आ गयी है ।मार्च तक भारत नें भी इसके असर दिखने लगे।अचानक देश मे रेलें बंद कर दी गई मजदूरवर्ग शहर से गांव की ओर पलायन करने लगे चुकी रेले बंद थी लोग पैदल ही अपने गांव की ओर निकल पड़े रास्तो में रुकते सड़को पर ही खाना पकाते और मजदूरों को छालो से भरे पैर लिये आगे बढ़ते चले जा रहे थे । सरकार कहती थी जो जहां हैं वही रहें। ।देबुआ भी इसी तरह आगे बढा चल रहा था और लोगों की मदद के हर सम्भव प्रयास भी किया करता। देबुआ की आंखे सजल हो जाती थी ये सोच कर कि शहरों में विशाल अट्टालिकाओं के निर्माता ये मजदूर असल में कैसे विस्थापित की जिंदगी जी रहे थे।जल्दी ही घर पहुंच जाने की ललक लिये ये तेजी से घर की बढ़ रहे थे कोई पैदल तो कोई सायकिल से बढा जा रहा था ।बस घर पहुंचने की धुन लिये। सारे कारोवार ठप थे ,कौन इन मजदूरों को मुफ्त मे खिला सकता । दिल्ली की सड़कों से ले कर बिल्डिंग्स तक जिसे इन मजदूरों के अथक परिश्रम से बनाया गया था वहां ईन मजदूरों के लिये सर छुपाने की जगह न थी । पुरा देश ठप था सड़कें सूनीनी हो गयी थीं।रेलें बंद थी आवागमन के सारे साधन ठप थे ।
आखिर कई दिनो की यात्रा के बाद देबुआ भी गाँव पहुंचता है।देबुआ सजग है घर मे ही बीवी-बच्चों से दुर एक कोठरी मे रहता है ।शांति पानी ले के आई है लोटा जमीन ने रख देती है पति के पैर के छाले देख कर आंखो से लोर बह रहा है रोते हुए कहती है"ए जी अब आप कोनो बडका शहर काम करने नही जाइयेगा हम दुनू मिल के काम करेंगे तो का परिवार का पेट नही पाल सकेंगे ?"
देबुआ भी शांति की बात से सहमत है उसने भी सोच लिया है अब गाँव मे ही रहेगा खेतो मे काम करेगा यहां तो सब अपने हैं, एक जून नही भी कमाएगा तो चूल्हा उपास नही पड़ेगा ।पत्नी को आश्वस्त करता है की एईहेजे मिल के काम करेंगे ।मन ही मन भविष्य की पूरी योजना बना ली है ।शाम को काम से लौटेगा,शांति पानी का लोटा ले के आयेगी वो शांति को चाय बनाने के लिये कहेगा दूनु बच्चा लोग उसको स्कूल मे मिला हुआ सबक सुनाएगा। दू घड़ी ग गाँव के बुजुर्ग लोग के साथ बैठ के हुक्का,गूड़गुड़ि पियेगा और नौजवानो को शहर की कहानी सुनाएगा।
पर नियती को कुछ और मंजूर है तीन दिन तक सब ठीक रहता है तीसरा दिन से देबूआ बिमार हो गया है यात्रा का थकान समझ के वो किसी से नही कहता।एक दिन सबेरे गाँव वालों को देबुआ के बीवी की चीत्कार सुनाई देती है ।वो विलाप कर के देबुआ को उठा रही है।गाँव वाले दौड़े आते हैं पर द्वार पर पहुंचते ही किसी ने कहा का पता ऊ शहर से कोरोना बिमारी ले के आया होगा। ऊ तो छुआछुत का बिमारी है न।गाँव वाले लौट जाते हैं।
देबुआ की बीवी की चीत्कार पुरे गाँव मे सुनाई दे रही है।
वो दोनो बच्चो को छाती से चिपटाये पति की लाश को एकटक देख रही है ,घर मे लाश को रखे अब 24 घन्टे से उपर हो चुके हैं ।गाँव का सबसे हंसमुख आदमी सबके सुख दुख मे आगे आने वाला आदमी खाट पर लाश बन के पड़ा है अब तो शन्ति की आंख का लोर भी सूख गया है।