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अधर्मा

अधर्मा

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शिवा नन्द पाण्डे एक खूबसूरत बाँका जवान थे। रंग बिल्कुल गोरा चिट्टा। हँसमुख चेहरा। गठीली और मजबूत देह। चेहरे से सदा सज्जनता टपकती। उनकी शीलता और उनके साहस का कोई जबाब न था। उनकी पत्नी सावित्री उन्हें पाकर बहुत खुश थी। ईश्वर को बार-बार धन्यवाद देती कि परमात्मा करे सबको ऐसा ही पति मिले। वह पाण्डे जी के साथ हर कष्ट सहर्ष सहने को तैयार थी। सिर पर पति नाम का साया देखकर वह अपना सारा कष्ट भूल जाती। दोनों बच्चों को रूखा-सूखा खिलाकर खुद बिना खाए ही रह जाती। उसे आए दिन उपवास ही करना पड़ता। मानो, उसके नसीब में यही लिखा था। महँगाई और बेरोज़गारी के कहर से तंग आकर शिवा नन्द शहर में नौकरी करने चले गए। उनके लुधियाना जाने के बाद सावित्री पुत्रों के साथ अकेली रह गई। दरिद्रता की विवशता न होती तो वह उन्हें शहर भी न जाने देती। पाण्डे जी लुधियाना जाकर बीवी-बच्चों को धीरे-धीरे भूल गए। मानो, उनके सिर से कोई बहुत बड़ा बोझ उतर गया। उन्हें पुत्रों की देखभाल के लिए पत्नी के नाम पर मुफ्त में जो एक नौकरानी मिल गई थी। उन्हें अब घर की कोई फिक्र न रही। वह तक़दीर के धनी थे। पंजाब जाते ही उन्हें एक मिल में नौकरी मिल गई। वहाँ ठाट से जीवन व्यतीत करने लगे। मकान के लिए कोई अधिक भाग-दौड़ न करनी पड़ी। तीन सौ रूपये माहवार पर एक अच्छा कमरा मिल गया मकान मालिक रामू चौधरी एक पुत्र और पुत्री, दो बच्चों को छोड़कर ईश्वर को प्यारे हो चुके थे। बिरादरी के लोगों को युवावस्था में सीमा के विधवा होने का बड़ा शोक हुआ। चौधरी जी के परलोक सिधारने के बाद सीमा को उनके स्थान पर नौकरी मिल गई। लेकिन,चौधरी जी की अनुपस्थिति उन्हें रात-दिन खटकती रहती। भरी जवानी में विधवा का जीवन जीना उनके लिए असहय हो गया। यह कैसी विडम्बना है कि पत्नी के मरने के बाद पुरूष बिल्कुल स्वतंत्र हो जाता है। वह बिना किसी रोक-टोक के स्वछन्द विचरण करने लगता है। सज-धज कर रहता है। युवा ललनाओं को हाट बाट में घूर-घूर कर देखता है।

पर, पति की मृत्यु होने पर पत्नी को किसी पुरूष को देखना भी पाप समझा जाता है। किसी से हँसना-बोलना तो बहुत दूर की बात है। उसे बिल्कुल सादा जीवन बिताना पड़ता है। शौक-श्रृंगार को कौन कहे? उसके ढंग के कपड़े भी पहनना अनुचित समझा जाता है। जीते जी उसे नर्क भोगना पड़ता है। कुछ दिन बाद जब पाण्डे जी का बड़ा पुत्र ईश्वर दत्त दस बारह साल का हो गया तो उन्होंने उसे भी अपने पास बुला लिया। सावित्री के पास पाण्डे जी के पुत्र -झिनकू के अलावा और कोई न रह गया। उधर सीमा के पास पाण्डे जी को रहते डेढ़ दो वर्ष बीत गये। ड्यूटी से छूटने पर दोनों एक साथ बैठकर बोल-बतला लेते। सीमा कभी-कभी अवसर पाकर शिवा नन्द से हँसी-मजाक भी कर लेती थी, पाण्डे जी को पहले तो उनकी मसखरी अच्छी न लगती। वह उन पर बिगड़-खड़े होते। मकान बदलने की धमकी देते। पर, कुछ दिन के बाद इसके अभ्यस्त हो गए। धीरे-धीरे वह खुद भी सीमा से हँसी ठट्ठा करने लगे। वह उनका बहुत खयाल रखते। उनके सुख-दुख में काम आते। उनका अपनापन देखकर सीमा का हृदय द्रवित हो गया। धीरे-धीरे वह चौधरी जी को भूल गयी और एक दिन पाण्डे जी से बोली - आज से आपका अलग खाना-पकाना बन्द। बाप-बेटे दोनों का भोजन मैं ही बना दिया करूँगी पाण्डे जी न चाहते हुए भी मना न कर सके और सहमति में गर्दन हिला दिए। लेकिन कुछ सोचकर उन्होंने सीमा से कहा - आप मेरे खाने की चिंता न करें - ड्यूटी करें और बच्चों की देखभाल करें। तब सीमा ने कहा - मुझसे ऐसा न होगा। जब आप हम सबका इतना ध्यान रखते हैं तो, अपनी सेवा करने का अवसर दीजिए। मुझे भी अपना कर्तव्य निभाने दें। पाण्डे जी अपनी मौन स्वीकृति में गर्दन हिला दिए। दोनों चूल्हा एक होने के बाद उनकी घनिष्टता और भी गहरी होती चली गई। दोनों परिवार के बच्चे अब एक साथ खेलने - खाने लगे। कभी - कभी एक ही साथ सो भी जाते।

इसी प्रकार कुछ दिन और बीते कि एक दिन शाम को सीमा ने पाण्डे जी से कहा - आप अपनी पत्नी को भी यहीं बुला लीजिए। सब एक साथ मिलकर रहेंगे। एक दूसरे के सुख-दुख में हाथ बटाएंगे। यह सुनकर पहले तो पाण्डे जी ठकुआ गए, फिर संभलकर बोले - आपकी यह मंशा कभी पूरी न होगी। क्योंकि मैं उसे जीवन भर अपने पास नहीं रख सकता।

सीमा ने पूछा - क्यों, आखिर, क्या कमी है उनमें?

पाण्डे जी जबाव दिए - एक दो कमी हो तो बताऊँ भी। उसके तो पोर-पोर में कमी ही कमी भरी हुई है। न शक्ल-सूरत है और न सीरत ही। रहन-सहन भी भौंडा है। उसकी कर्कशता का कोई जवाब ही नहीं। उस पर भी एक पैर पोलियो का शिकार हो चुका है। चलना फिरना मुश्किल है।

शिवानन्द का दामपत्य जीवन दुखमय सुनकर सीमा के मुँह से आह निकल गई। उनकी आँखें नम हो गई। उन्होंने आँसू पोछते हुए कहा- तब आपने ऐसी शादी ही क्यों की? भली-भाँति देखभाल कर करते तो ऐसा कदापि न होता। पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं। दोनों में एक बार मतभेद उत्पन्न हो जाने पर सारा जीवन नर्कमय बन जाता है। पाण्डे जी बोले - क्या किया जा सकता है? जो भाग्य में बदा था, वही हुआ। इसके बाद उन्होंने सावित्री से विवाह करने की सारी कथा सीमा को सुना दिया।

पाण्डे जी की दुखभरी कहानी सुनकर सीमा को बहुत दुख हुआ। उन्होंने कहा - काश, मैं आपका दर्द कम कर सकती । लेकिन विवश हूँ। यह समाज भी बड़ा विचित्र है। न जीने देगा और न मरने ही देगा। क्योंकि मैं एक विधवा जो ठहरी। यदि मैं आपकी बिरादरी में पैदा हुई होती तो क्या ग़म था। इतना सुनते ही पाण्डे जी बोले- लगता है आप अपने होश हवास में नहीं हैं। वरना, ऐसी बहकी-बहकी बातें न करतीं। अभी चौधरी जी को मरे हुए कितने दिन हुए। मुझ जैसे ब्राहमण को आप पाप का रास्ता दिखा रही हैं और यदि आप मेरा इम्तहान लेना चाहती हैं तो शौक से लीजिए। लेकिन ऐसी स्थिति में मैं किसी दूसरी स्त्री के बारे में सोच भी नहीं सकता। तब सीमा बोली - तो क्या आप भी इस समाज के उट पटांग आडम्बरों को मानते हैं? आप दूसरी जाति के हैं तो क्या हुआ? आपके विचार तो ऊँचे ही हैं। ईश्वर ने सबको एक जैसा ही बनाया है। वही लाल खून जो मेरी नसों में दौड़ रहा है, आपकी भी रगों में है। यह जाति-पांति हमने और आपने ही बनाए हैं। एक ही परमात्मा की संतान होकर आपस में यह भेदभाव क्यों? मनुष्य को कुरीतियों को त्याग देना चाहिए। ऊँच नीच का बंधन समाज के विकास में सबसे बड़ा बाधक है। यदि सिख ईसाई और मुसलमान इस परम्परा का निर्वाह नहीं करते तो हिन्दू ही इन रूढ़िवादी विचारों का समर्थन क्यों करें?

सीमा का जाति-पांति विरोधी विचार सुनकर पाण्डे जी दाँतों तले उंगली दबा लिए। वह एकदम दंग रह गए। आश्चर्य से सीमा की आँखों में झाँक कर वह बोले - मान गया, आपका भी कोई जवाब नहीं। आपके विचार बहुत स्पष्ट और ऊँचे हैं। मेरे पास अब कहने को बचा ही क्या है? आपने हमारी आँखें खोल दी। मैं आपका यह एहसान जीवन भर न भूलूँगा।

तब सीमा बोली - मेरा कैसा एहसान? मैंने तो सच्चाई बयान किया है और हमारे धर्म ग्रन्थ भी तो यही सीख देते हैं। पर, एक बात सच-सच बताइए कि आप मुझे ऐसे क्यों देख रहे हैं? पाण्डे जी बोले - सुन्दर चीज को देखकर नेत्रों को सुख मिलता है। दूसरे आपकी बातों को सुनकर मुझे यकीन नहीं हो रहा कि मैं आपके पास ही हूँ या कोई स्वप्न देखा है।

सीमा ने कहा - यह कोई सपना नहीं, हक़ीकत है। तब पाण्डे जी बोले- रही बात किसी अन्य स्त्री को न देखने की तो सुनिए, नीयत में खोट न हो तो देखने में कोई दोष नहीं है। यह देखने वाले पर निर्भर है कि वह किसी को किस दृष्टि से देखता है।

ऐसे ही दिन बीतते गए। पाण्डे जी अपनी कमाई में से कुछ पैसे सावित्री के पास भेज देते। लेकिन कई वर्ष तक अपने गाँव जाकर उनकी खोज-खबर न लिए।

सीमा ने कई बार कहा - कि आप अपने बीवी-बच्चे से मिल आइए। लेकिन वह कोई न कोई बहाना बनाकर साफ निकल जाते। सीमा ने उन्हें बहुत समझाया कि पत्नी से इस तरह नाता तोड़ना ठीक नहीं। पति-पत्नी समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। यदि एक भी पहिया बेकार हो जाए या पटरी से उतर जाए तो गाड़ी चलना असंभव हो जाता है, तब पाण्डे जी ने कहा- मुझे अब अपनी चिंता नहीं है, जीवन ऐसे ही गुजार दूँगा। उनका हठ देखकर सीमा ने कहा - यदि आपस में इतना मनमुटाव है तो उन्हें त्याग दीजिए - उन्हें उनके माँ-बाप के पास वापस पहुँचा दीजिए। पाण्डे जी ने जवाब दिया- कि मुश्किल तो यही है, कि न उसे अपना सकता और न ही उसे छोड़ सकता। अपाहिज है, बेचारी कहाँ जाएगी?· उनकी बात सुनकर सीमा बोली - तब आप दूसरा ब्याह क्यों नहीं कर लेते? पाण्डे जी बोले - मुझ जैसे बदनसीब से कौन स्त्री भला ब्याह करना चाहेगी। सीमा बोली - क्यों, क्या कमी है आप में। खूबसूरत है, जवान है, कमा रहे हैं। आप से तो कोई भी सभ्य स्त्री ब्याह करने को तैयार हो जाएगी। पाण्डे जी ने कहा - कहना जितना सरल है, करके निभाना उतना ही कठिन।

आए दिन रोज़ाना सीमा का उपदेश सुनते - सुनते पाण्डे जी खीझकर बोले - आपको जब मेरी इतनी फ़िक्र है तो आप ही कर लीजिए। एक से अलग होकर सब कुछ त्याग दिया तो एक को पाकर बाकी और भी त्याग दूँगा। सलाह देने में कुछ लगता नहीं है। आप साफ-साफ जवाब दीजिए। क्या इस समाज का मुकाबला करने का साहस आप में है।

पाण्डे जी की बातें सुनकर सीमा मन ही मन बहुत खुश हुई। उनका उदास चेहरा खिल गया। लेकिन लज्जावश उनकी बातों का स्पष्ट जवाब न दे सकीं। वह बोली - मैं कैसे बता दूँ, कि आज मैं कितना प्रसन्न हूँ। कम से कम आप में इतनी हिम्मत तो आई। पुरूष को दब्बू नहीं होना चाहिए। पुरूष का पुरूषार्थ ही उसकी शोभा है। आपकी दाद देनी पड़ेगी।· तब पाण्डे जी ने कहा - मुझे बातों में टालने की कोशिश मत करो। जो कुछ कहना है साफ-साफ कहो। अब मैं तुमसे अलग नहीं रह सकता। वरना, मैं इसी वक्त तुम्हारा घर छोड़कर कहीं और चला जाऊँगा।

सीमा ने कहा - हुजूर, ऐसी भी क्या बेताबी, जरा धैर्य तो रखिए। मैं कहीं चली थोड़े ही जाऊँगी। पाण्डे जी बोले - फिर मुझे यूँ ही और अभी कब तक तड़पना होगा। सीमा बोली - आप इतना टेंशन क्यों ले रहे हैं? समय आने पर सब कुछ बता दूँगी· पाण्डे जी बोले - प्यास बढ़ाकर प्यासे को पानी न देना अन्याय है। इसी प्रकार कुछ दिन तक आँख मिचौली का खेल चलता रहा और दोनों एक प्रेम-सूत्र में बँध गए। पाण्डे जी अपने पुत्र के साथ चौधरी के पुत्र-पुत्री को भी पढ़ाते-लिखाते। जीवन बड़ा सुखमय व्यतीत हो रहा था। घर में कहीं कोई कमी न थी। न कोई भेद-भाव था। बच्चे पाण्डे जी को बाबू जी और सीमा को अम्मा कहते लुधियाना से शिवा नन्द और सीमा रिटायर होने के बाद गाँव में जाकर रहने लगे। बच्चों की शिक्षा पूरी होने के बाद शिवा नन्द का बड़ा पुत्र ईश्वर दत्त और चौधरी का पुत्र सुरेश भी मिल में नौकरी करने लगे। दोनों कमाने लगे। कुछ माह तक तो सब कुछ सामान्य रहा। कुछ समय बाद सीमा को अपने बच्चों के विवाह की फ़िक्र सताने लगी। लेकिन, जहाँ भी लड़की या वर की बात चलती। लोग सुनकर मुँह सिकोड़ लेते। न लड़कों के लिए कोई अपनी पुत्री देने को राज़ी होता और न पुत्री को बहू के रूप में स्वीकार करने, ब्राह्मण जाति के लोग एक ही बात कहते - चौधरी बिरादरी को कौन अपनी पुत्री देगा। ब्राहमण और चौधरी बिरादरी के लोग लड़की को तो अपनाने को तैयार थे। लेकिन, विजातीय पुत्रों को दामाद बनाना स्वीकार न था। ब्राहमण बिरादरी का तर्क था कि पाण्डे जी अब चौधरी बिरादरी में शामिल हो गए हैं, उधर चौधरी लोग कहते- जब ब्राहमण, चौधरी बिरादरी को नहीं अपना सकते और अपनी पुत्रियों का विवाह हमारे पुत्रों से नहीं करते तो हम क्यों उन्हें अपना समझें। हम भी उनके बेटों को अपना दामाद नहीं मान सकते। संतानों के विवाह में आने वाली अड़चन पति-पत्नी को अखरने लगी। उनके दिन का चैन और रात की नींद हराम हो गई। कुछ समझ में न आता, कि क्या करें। वे छटपटा कर रह जाते। शहर में बच्चे जाति-पाँति के भेद-भाव से अनभिज्ञ थे लेकिन, गाँव जाते ही उन्हें भी वहाँ की हवा लग गई। भाइयों को अपनी इकलौती बहन की और बहन को अपने भाइयों की शादी की चिंता सताने लगी। लोग उनका उपहास करने लगे। उन्हें ताने मारने लगे। वे कहते - जवानी के नशे में चूर थे। दोनों ने आगा पीछा कुछ भी न सोचा। जवानी में गुलछर्रे उड़ाए। बच्चों के बारे में कुछ सोचा ही नहीं। अब ऊँट आया है पहाड़ के नीचे।

चौधरी बिरादरी के कुछ लोग चौधराइन से यहाँ तक कह दिए कि यदि बच्चों का भला चाहो तो पाण्डे जी को घर से बाहर निकाल कर उनसे नाता तोड़ लो। सब कुछ ठीक हो जाएगा। यह सुनकर चौधराइन मन मसोस कर रह जातीं। वह कहतीं - जिस पुरूष को मैंने अपना पति माना। अपना सब कुछ उसे सौंप दिया। उन्होंने भी बिना किसी भेद-भाव के पति और पिता का फर्ज़ निभाया। हमने जीवन भर जिनकी कमाई खाई, उस व्यक्ति के साथ मैं ऐसा कदापि न करूँगी। आज हमारा समाज इतना भटक गया है कि अपने को उच्च जाति का समझने वाले लोग दुकान पर बैठकर किसी भी बिरादरी के साथ खा-पी लेते हैं। शहरों में खान-पान रखते हैं तो गाँवों में ऐसी घृणा क्यों। लेकिन, धीरे-धीरे चौधराइन को सामाजिक कुरीतियों के आगे नतमस्तक होना पड़ा। रूढ़ियों के आगे अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने घुटने टेक दिए। एक दिन न जाने क्या सोचकर अचानक उन्होंने अपने पुत्र सुरेश से कहा - बेटा, तुम्हारे बाबूजी अब कमाते तो हैं नहीं। अब रात-दिन व्यर्थ ही बुढ़ापे में उनकी खिदमत करनी पड़ती है। मैं इस उम्र में अब उनकी यह तीमारदारी नहीं कर सकती। किन्तु एक बात है, वे जैसे भी हैं, अब मेरे पति हैं। मैं उन्हें कुछ भी कह नहीं सकती। बेटा, तुम जानते ही हो कि उनके यहाँ रहते हुए तुम लोगों का विवाह होना असम्भव है। यह समाज बड़ा विचित्र है। सच बताउं ! मैं धर्म संकट में फँस गई हूँ । यह सब अब मुझसे सहन नहीं होता है। इसलिए तुम कलेजे पर पत्थर रखकर उन्हें इस घर से कहीं बाहर भेज दो। मैं अजीब संकट में घिर गई हूँ। जी में आता है कि घर द्वार छोड़कर कहीं दूर चली जाऊं, यह सुनकर लड़के ने कहा- माँ, तुम पागलों जैसी कैसी बातें करती हो। वह आपके पति और हमारे पिता भी हैं। मुझे अधर्म के मार्ग पर मत ले जाओ। यह मुझसे न होगा। लेकिन मां-बेटे की बातचीत पाण्डे जी के कानों में पड़ ही गई। उन्हें काटो तो खून भी न निकले। उन्हें निजकर्म पर बड़ा पश्चाताप हुआ। उनका कलेजा ज़ोर -ज़ोर से धड़कने लगा। वह धीरे से अपने आप से बोले - कैसी अधर्मा स्त्री है ? इसे स्वर्ग - नर्क की कोई फ़िक्र नहीं। इसने मेरा भी धर्म बिगाड़ दिया। धोबी के कुत्ते की भांति मैं न घर का हुआ और न घाट का। यह सोचकर पाण्डे जी को बड़ा दुःख हुआ। वह पछताते हुए खुद से कहने लगे कि अपने बीवी-बच्चों से अलग होकर इसे अपनाया। लेकिन आज यह भी बदल गई। जब इसका यही विचार है तो अब यहाँ रहना बेकार है। फिर, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए सजा भी तो यही है, उसके बाद पाण्डे जी कब और कहाँ गए, किसी को कुछ मालूम नहीं। वह ज़िन्दा भी हैं या नहीं। कुछ पता नहीं। वह रहस्यमय ढंग से ग़ायब हो गए। पर, फिर लौटकर न आए। धीरे-धीरे बात आई-गई हो गई। चौधराइन ने उन्हें लापता बता कर सब बच्चों का ब्याह तो किया। पर, पाण्डे जी का वियोग उनसे सहन न हुआ। उन्हें अपने कर्मों पर बड़ी ग्लानि हुई। वह रात-दिन पश्चाताप के आँसू रोती। वह अपने आप से ही प्रश्न करती कि आखिर, उन्होंने मेरा क्या बिगाड़ा था? जो मैंने उन्हें धोखा दिया। अपने देवता के साथ कपट किया। अपनी जिंदगी उन्हें बोझ नजर आने लगी। कभी -कभी वह दहाड़ें मार- मार कर रोने भी लगतीं। अंत में दुखी होकर वह एक बार प्रयागराज कुम्भ मेले में नहाने गई और त्रिवेणी में विलीन हो गयीं ।


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