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chandraprabha kumar

Fantasy Inspirational

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chandraprabha kumar

Fantasy Inspirational

कुदरुम एक याद

कुदरुम एक याद

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   जब हम दुमका में रह रहे थे तो वह आदिवासी बहुल एरिया था, ज़्यादातर संथाल वहॉं थे। हमारे यहॉं काम करने वाले सभी संथाल थे। उनमें भी प्रायः खेत का काम देखते थे या माली का काम करते थे क्योंकि इस सब में वे कुशल थे। तब घरों में टैप वाटर नहीं था, कुएँ से पानी खींचा जाता था। 

  कुऑं हमारे घर के एक साईड में बना हुआ था। कुएँ से पानी खींचने का काम रसिक सोरेन करता था, वही माली भी था और सब्ज़ी वग़ैरह बोता था। कुएँ के पास ही खेत बने हुए थे,जिनमें कुम्हड़े की बेल लगी हुई थी, और बहुत बड़े बड़े मीठे कद्दू लगते थे। बरबट्टी भी खूब होती थी, जिसे हम लोभिया बोलते थे। कुआँ खेत के पास होने से पानी पटाने में सुविधा होती थी। रसिक सोरेन ही खेतों में पानी पटाता था, और घर के अन्दर भी पानी वही लाकर देता था। एक बड़े लम्बे से डण्डे में दोनों तरफ़ कनस्तर बॉंधकर कर बहँगी की तरह लटकाकर पानी लाया जाता था। रसिक सोरेन कृष्ण वर्ण का और बहुत मज़बूत कदकाठी का तथा थोड़े नाटे क़द का था। 

    तब पानी गर्म करने का काम लकड़ी के चूल्हे पर या पत्थर के कोयले की अंगीठी पर होता था। यह काम भी रसिक सोरेन के ज़िम्मे था। जब तक वह काम करता था, तब तक तो ठीक था, पर इसमें नागा भी वह आये दिन करता रहता था। इसका कारण था उसका अधिक हंडिया पीना। यह कहने को तो चावल का पानी होता था, संथाल उत्सवों में प्रसाद की तरह भी वितरित होता था, पर मादक होता था। कहते हैं कि अति हरेक चीज़ की बुरी होती है।रसिक सोरेन को इसकी लत पड़ गई थी और काम में लापरवाही होने लगी थी। बार बार समझाने का भी उस पर कोई असर नहीं होता था। तो हमें एक और माली रखना पड़ा। वह खेतों की देखभाल करता था। 

   दूसरा माली जलेश्वर भी संथाल था, हिन्दी अच्छे से समझ बोल लेता था, लेकिन बोलने में हकलाता था। काम करने में होशियार था। हमने सोचा थोड़ा हकला है तो कोई बात नहीं। एक दिन हमने देखा कि उसके गॉंव से कोई मिलने आया तो वह अपनी भाषा में उससे अच्छे से बात कर रहा था, जरा भी हकला नहीं रहा था। हमें आश्चर्य हुआ, एक दिन में कैसे सुधर गया। पर जब हमसे बोलने आया तो वही हकलापन। हमने उससे पूछा-“ उस दिन तो तुम उससे ठीक से बात कर रहे थे, आज क्या हुआ ? तुम हकले तो नहीं हो।"

 तो उसने स्पष्ट किया-“ मैं अपनी भाषा में तो ठीक से बात कर लेता हूँ, पर हिन्दी बोलने में हकलाने लगता हूँ, सोच सोचकर बोलना पड़ता है।”

    उसकी बात सुनकर हमें हँसी आ गई, हमने कहा -“ घबराने की बात नहीं है। आराम आराम से बोलोगे तो ठीक से बोलोगे,

   वह आउट हाउस में ही रहता था, अकेला रहता था, अपना खाना खुद ही बनाता था। 

हमने आगे कहा-“ तुम्हें कोई दिक़्क़त तो नहीं है, कोई चीज़ की ज़रूरत हो तो मॉंग लेना।"

  वह बोला-“ हम एक टाइम भात बनाते हैं, उसे ही दोनों समय खा लेते हैं।"

“ तुम्हारा भात ख़राब नहीं हो जाता।"

“ नहीं, हम हंडिया में पानी डालकर रख देते हैं, शाम तक ठीक रहता है। “

 “और चावल के साथ में क्या लेते हो।”

“ चावल के मॉंड में ही आलू पत्ती डालकर या कुदरुम डालकर साग बना लेते हैं नमक के साथ।"

   उसका साधारण सा खाना सुनकर हमें सहानुभूति हुई। इसी में वह खुश है। आलू तो खेत में लगे हैं, यह पत्तों से ही काम चला लेता है। पर कुदरुम के बारे में हमें नहीं पता था। हमने नाम तक नहीं सुना था।

हमने पूछा- “कुदरुम क्या है ?”

 वह बोले- “ आपके खेत में ही लगा है। “

“हमारे खेत में हो रहा है, तुमने तो बताया नहीं, ना ही दिखाये।"

 हमें उत्सुकता हुई, हमारे ही खेत में लगा है और हमें पता तक नहीं । रसिक सोरेन ने तो कभी ज़िक्र नहीं किया। 

  हम उसके साथ खेत में कुदरुम देखने गये। छोटी सी झाड़ी में गहरे गुलाबी लाल से रंग के फूल लगे थे, इन्हें ही वह कुदरुम कह रहा था। 

 हमने कहा -“ ये तो फूल हैं।"

उसने बताया-“ पर ये फूल और इनके पत्ते भी खाये जाते हैं। फूल खट्टे- मीठे होते हैं, इन फूलों की चटनी बना सकते हैं,  और इनकी सब्ज़ी या अचार बना सकते हैं।" 

  उसकी जानकारी ठीक थी। हमने उसकी कोठरी में जाकर देखा। उसने एक मिट्टी की हंडिया में नमक डालकर भात रखा हुआ था और भात के मॉंड में पत्तियाँ व फूल डालकर साग बना रखा था। 

  हमने भी दूसरे दिन अपने यहॉं कुदरुम के फूलों की खट्टी मीठी चटनी बनवाई, जो बहुत स्वादिष्ट थी। 

   हमें एक नई चीज़ जलेश्वर की वजह से पता चली। ये आदिवासी प्रकृति के सान्निध्य में रहते हैं, अपने अनुभव से जानते हैं। जो पढ़े- लिखे लोग भी नहीं जानते। 

  बाद में हमने और खोजबीन की तो पता चला कुदरुम के अन्य भी नाम हैं। अंग्रेज़ी में इसे रोसेल प्लाण्ट कहते हैं। दक्षिण भारत में इसे गोंगुरा कहते हैं और इसका अचार बनाते हैं इसी के अन्य नाम अम्बाड़ी, अम्बादा और सौरेल हैं। बोटैनिकल नाम रोसेल हिबिस्कस सबडरीफ़ा है। फूल चार - पॉंच महीने तक रहता है। फूल से फूल बनता है। पहिले हल्का गुलाबी या सफ़ेद फूल निकलता है, उसी के बीच से लाल कुदरुम निकलता है। गर्मी ज़्यादा होती है तो यह खट्टा होता है और नहीं तो खट्टा मीठा होता है। सारा पौधा खाने लायक़ है। यह गर्मी की फसल है। 

  कुदरुम के बारे में जानकारी जो हमें बहुत मेहनत के बाद मिली, जलेश्वर को जल जंगल के ताल मेल में रहने से स्वतः अनुभव से प्राप्त थी। अनुभव सबसे बड़ शिक्षक है। उसी की वजह से हमें कुदरुम की जानकारी हुई, इस वजह से उसका भी नाम यादों में जुड़ गया है।


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