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Shivani Tripathi 5213

Inspirational

3.8  

Shivani Tripathi 5213

Inspirational

ट्रैन का पहला सफर

ट्रैन का पहला सफर

4 mins
288


जीवन में हर चीज जो पहली बार होती है वो अपने आप में ही खूबसूरत होती है, वो हमारे ख्याल में घर बना के पर्मनंट मेम्बरशिप ले लेती है, एक माँ के लिए उसके बच्चे से पहली बार माँ सुनना, हमारा पहली बार दोस्तों के साथ खेलना, पहली बार स्कूल जाना सब कुछ बेहद खूबसूरत होता है पहली बार चोट लगना हलकी उस समय दर्द और आंसू थे, पर अब ये मजेदार किस्सा बन गये है वो पहली बार साइकिल चलाना मई तो सपने में साइकिल चलाते चलाते उड़ जाती थी खैर जो भी हुआ पहली बार सब खूबसूरत था सिवाय एक सफ़र को छोड़ के किसी काम से दिल्ली जाना था समय के भाव में रिजर्वेशन नहीं हो पायासुबह जल्दी तैयार हो के पास के बस अड्डे पे जाना था बारिश हो रही थी बारिश के हल्के होते ही हम बस अड्डे पहुंचे, बस ली स्टेशन पहुँचने के लिए

ट्रैन का समय था 3 बजे जो सिर्फ 5 मिनट रुकती थी पहुँच के हमने जनरल डिब्बे की टिकट ली जैसे ही प्लेटफार्म पे पहुंचे वैसे ट्रेन आ गयी, ट्रेन की सीटी बजी और सफर शुरू हुआ सीट नहीं मिली शुरुआत के 3 घन्टे ठीक ठाक गुजरे उसके बाद सिंगल सीट मिली जिस पे मुश्किलें 4 फिट 8 इंच का आदमी आराम से लेट सकता थापर मेरे साथ जो सदस्य थे मेरे परिवार के उनकी हाइट तो इससे कहीं ज्यादा थी उन्होंने मुझे वो सीट दी और खुद जाके एक फूल सीट के कोने पे बैठ गये, अच्छा तो नहीं लग रहा था पर इसका सुकून था वो बैठे है समय के साथ गाड़ी अगले स्टेशन पे पहुंची, उस सीट का मालिक आया मतलब ट्रैन सरकारी जरूर थी पर टिकट खरीदने वाला इंसान उसे अपने पिता जी की विरासत समझ के राज करता था उस व्यक्ति ने उन्हें उठने के लिए कहा, मैंने कहा मेरे साथ बैठ जाइये कमर की समस्या के कारण मैंने उन्हें बोला आप आराम करिये मैं नीचे बैठ जाती हूँ ट्रैन में नीचे बैठ के मैं लोगों के हावभाव पे ध्यान दे रही थी हाँ माना की ये गलत था पर वहाँ का माहौल ही कुछ ऐसा था, वहां दो लड़कियां थी उन्होंने जिस सीट पे किसी को बैठने नहीं दिया वो सीट भी उनकी नहीं थी विचित्र थी दोनों पूरे डिब्बे में सबसे लड़ लिया ये दिखाते हुए की सीट उनकी है अंत में पता चलता है सब बुद्धि और चालाकी का खेल है, खैर जैसे तैसे रात गुजारी दिल्ली पहुँच के भी काम नहीं हुआ उसी रात हमें वापस आना था जुलाई में ठंड हो ये थोड़ा आश्चर्यजनक था पर ये भी ठीक ही था हम वापस निकले लाइन में खड़े हुए टिकट ली और फिर प्लेटफार्म गाड़ी का वेट करने लगे 11 बजे की गाड़ी रात के 2 बजे आती है ठंड भी अपना हाथ फैलाए हुए है गाड़ी के प्लेटफार्म पे लगते ही हम बैठते है फिर से वही सिचुएशन इस बार सिंगल सीट पे तीन लोग किसी तरह हम बैठे थे ट्रैन चलती है फिर से मैं नीचे एक पौलीथिन पे आँखें बंद करके पड़ी हुई हूँ और सबकी बातें सुन रही एक खुशदिल अंकल जो मेरे साथ के सदस्य से पूछते है, आप सेना में है फिर बात चीत का सिलसिला आगे बढ़ता है दो से तीन और फिर चार लोगों की मण्डली बैठ जाती है, कैसे आज का युवा रास्ता भटक गया है कैसे हम अपनी संस्कृति से दूर हो गये है एक लखनऊ का लड़का बताता है कैसे हॉस्टल्स में लोग नशे के शिकार हो गये अंकल को बात करते करते अंकल को हम पे दया आ जाती है और वो हमें अपनी सीट दे देते है प्लेटफार्म पे गाड़ी लगती है धन्यवाद अंकल बोल के हम सब अपने मंजिल की तरफ निकल गए वाकई सफर यादगार था दुनिया में दो तरह के लोग होते है मैंने उन दोनों का सामना अपने सफर में किया इस सफ़र में बहुत सी चीजें सीखी कभी किसी को उठाया नहीं और उन अंकल की तरह बनने की कोशिश करती रह गयी मैं नहीं चाहती उन लड़कियों जैसे जो चाहती तो मुझे बिठा सकती थी पर बैठाया नहीं अंकल की तरह खुश रहो हमेशा


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