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Niharika Singh (अद्विका)

Inspirational Tragedy

5.0  

Niharika Singh (अद्विका)

Inspirational Tragedy

शहीद की पत्नी

शहीद की पत्नी

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आज नीरजा को पहली तनख्वाह मिली है। पहले से ही सोच के रखा था उसने कि पहली तनख्वाह मिलेगी तो सबसे पहले बाबा के घर का किराया देना है। बाबा के कारण ही मुझे बेटे के साथ सर छुपाने की जगह मिली है। उसके बाद बेटे के लिए एक जोड़ा कपड़ा लेना है और अपने लिए नहीं.. नहीं.. अपने लिए कुछ लेने की आवश्यकता नहीं है। डॉक्टर साहिबा ने जो अपनी पुरानी साड़ियाँ दी है, वह तो बहुत अच्छी है। उन्हीं साड़ियों से मेरा काम चल जाएगा। पूरे महीने का राशन पानी भी तो लाना है। मैं अपने बेटे को इस तरह और भूख से बिलखते हुए नहीं देख सकती। मुझे एक-एक पैसा हिसाब करके खर्च करना पड़ेगा, ताकि.. महीने के आखिरी में फांके में ना दिन गुजारना पड़े। रुपए पैसों का हिसाब लगाते लगाते जाने कब नीरजा का चंचल मन बीते दिनों की कुछ सुनहरी और कुछ काली अंधेरी रातों जैसी यादों की पगडंडियों में चलने के लिए मजबूर हो गया...!

"शादी के बाद जब पहली बार ससुराल आई थी तो एक सी आर पी एफ जवान की पत्नी होने के गर्व से मुखड़ा दमक रहा था। कभी सोचा ही नहीं था कि किसी सी आर पी एफ जवान से शादी होगी। एक किसान की बेटी..वो भी गरीब किसान की बेटी, इतना बड़ा सपना भला कैसे देख सकती है, परंतु.. किस्मत ने साथ दिया तो सुमित जैसा जीवन साथी मिला था।

ऊँची कद काठी और देखने में सुदर्शन। सुंदर व्यक्तित्व के अंदर बसा जो मन था, वह बहुत सुंदर और निर्मल। देश के लिए मर मिटने की जज्बात, अपने काम के प्रति समर्पित। देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई। यह सब गुण नीरजा को बहुत भाया था। वह पति के इस गुणों के सामने नतमस्तक होकर संपूर्ण समर्पित हो गई थी।

पति सुमित की पोस्टिंग दिल्ली में थी। शादी के कुछ दिनों के बाद सुमित गाँव में ही नीरजा को छोड़कर शहर ड्यूटी ज्वाइन कर ली। घर में नीरजा की सासू माँ और जेठ तथा जेठानी सब मिलकर रहते थे। छोटी सी खेती थी जिसमें सुमित का बड़ा भाई विनीत काम करता था, उसके तीन बच्चे थे। पति के जाने के पश्चात जीवन में एक सूनापन सा लगने लगा तो.. नीरजा ने स्वयं को सब की सेवा में समर्पित कर दी। उसकी सेवा से उसकी सासू माँ बहुत प्रसन्न थी।

जब नीरजा गर्भवती हुई.. यह खबर सुमित को पता चली तो.. पहली बार पिता बनने की खुशी से फूला नहीं समा रहा था परंतु.. दुख इस बात का हो रहा था कि वह छुट्टी लेकर नीरजा से मिलने घर नहीं जा पाएगा। जब नीरजा अस्पताल में भर्ती हुई डिलीवरी के लिए तब भी सुमित को छुट्टी नहीं मिली। केवल फोन पर ही बात करके उसे संतोष करना पड़ा। बेटे होने की खुशी में अपने साथियों को सुमित ने अपने कार्यस्थल पर ही पार्टी दी, परंतु.. फिर वही छुट्टियों की परेशानी, जो उसे नहीं मिली। बेटा जब एक साल का हुआ तो उसका पहला जन्मदिन मनाने के लिए बहुत मिन्नतें करने के पश्चात सुमित को एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी, तब वह घर आया था।

"बेटा बिल्कुल मुझ पर गया है ना नीरजा देखो इसकी शक्ल सूरत नाक, आंख सब मेरे जैसी ही है।" अपनी खुशी व्यक्त करते हुए सुमित ने कहा।

"बेटा आपका है तो आपके जैसे ही होगा ना !" मुस्कुराकर पति की ओर देखते हुए नीरजा ने कहा।

"अपनी माँ के जैसा भी तो हो सकता था।" सुमित ने नीरजा को छेड़ते हुए कहा।

"मुझे तो इस बात का गर्व है की बेटा बिल्कुल आप के जैसा ही है। आपके जैसे देश के प्रति उसके मन में भी देशभक्ति हो, जज्बात हो, जो ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमें और क्या चाहिए।" खुशी की छटा नीरजा के चेहरे पर बिखर गई।

"बिल्कुल वैसा ही होगा देखना। आखिर मेरा बेटा है। मैं तो चाहता हूँ कि मेरे बेटे को मैं आर्मी में भेजूँ।" सुमित की आँखों में कई सपने मंडरा रहे थे।

"आपका सपना अवश्य पूरा होगा आप निश्चिंत रहिए मैं उसे ऐसी शिक्षा दूँगी।" नीरजा ने पति को हिम्मत दी।

पता नहीं कब छुट्टियाँ खत्म हो गई सुमित को पता ही नहीं चला। बेटे को दुलारते हुए, उसके साथ खेलते हुए जाने सुबह से कब शाम हो जाती थी। जाते समय आँखें नम किए वह बेटे का माथा बार-बार चूम रहा था। जाते समय पीछे मुड़कर इसलिए नहीं देखा कि कोई उसकी आंखों के अश्रु को ना देख ले। नीरजा ने भी अपनी अश्रुसिक्त आँखों से अपने पति को विदा किया।

एक दिन अचानक सुमित का फोन आया कि पुलवामा में उसकी पोस्टिंग हो गई है। यह खबर सुनकर एक बार तो नीरजा को अच्छा नहीं लगा क्योंकि वहां पर आतंकवादियों का सामना करते करते कब सेना शहीद हो जाए इसका कोई भरोसा नहीं है। पर.. वह एक देशभक्त और वीर की पत्नी थी, उसे भी एक वीरांगना की भांति सभी स्थितियों का सामना करना पड़ेगा.. सोच कर उसके मन में दृढ़ता आ गई।

कुछ ही दिनों के पश्चात अचानक यह खबर आई कि पुलवामा में सी आर पीए फ के बस को किसी आतंकवादी ने उड़ा दी और उसमें जितने सी आर पी एफ के जवान थे सब शहीद हो गए। उसमें नीरजा के पति भी थे। यह खबर सुनकर नीरजा पत्थर की मूरत सी हो गई। ना बोलती है, ना रोती है। उसके बेटे को तो सास ने संभाल लिया, परंतु.. उसे अपने तन की मन की सुध न रही।

धीरे धीरे स्वयं के लिए ना सही, अपने बेटे के लिए नीरजा ने अपने आप को संभाल लिया। सुमित के घर की हालत तो बहुत अच्छी नहीं थी। जो सैलरी आती थी उसी से घर का खर्चा चलता था। अब वह भी आना बंद हो गया। सरकारी सहायता जो मिलनी थी, वह तो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों के चक्कर में महीनों बीत गए। घर में सभी दाने-दाने को मोहताज होने लगे। सुमित का बड़ा भाई विनीत अपना परिवार लेकर अलग हो गया तो सास भी उसके साथ हो ली।

नीरजा अपने बेटे के साथ बिल्कुल अकेली पड़ गई थी। खेत में जो भी फसलें होती थी उसमें से नीरजा को कुछ भी हिस्सा नहीं मिलता था। नीरजा का बेटा बड़ा हो रहा था। उसके उचित पौष्टिक खानपान की व्यवस्था करना नीरजा के लिए असंभव सा हो गया। वह क्या करें उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। एक दिन ऐसे ही उदास होकर घर में चुपचाप बैठी हुई थी, तभी बाहर से किसी ने आवाज देते हुए कहा.."बहू.. सुमित की बहू... घर में हो क्या ?" घर के अंदर प्रवेश किया। सामने सुमित का बड़ा भाई विनीत खड़ा है देखकर नीरजा हड़बड़ा कर खड़ी हो गई। उसकी ओर देखकर नीरजा को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा क्योंकि आँखों में भूखे शेर की तरह भूख नजर आ रही थी। वह नीरजा को सर से लेकर पाँव तक निहारने लगा। नीरजा से यह बर्दाश्त नहीं हुआ तो.. उसने झट पूछा "क्या बात है भाई साहब ! आप इस तरह से क्यों देख रहे हैं ?"

"देख रहा हूँ इतना खूबसूरत सा तन कैसा हो गया है। सुमित नहीं है तो इस तन का ध्यान भी कौन रखेगा ? भरी जवानी में तुम विधवा हो गई हो तुम्हारे मन में भी न जाने कितने सपने होंगे। अकेली यहाँ पड़ी हो, तुम चाहो तो कभी कभी रात को मैं यहाँ आ जाया करूँगा, तुम्हारी सुध लेने के लिए। तुम्हारा मन भी आनंदित हो जाएगा और मैं भी खुश हो जाऊँगा मिंटू के साथ खेल कर। तुम्हारा और तुम्हारे बेटे की खाने की चिंता तुम्हें करनी नहीं पड़ेगी। मैं सारा खर्चा उठा लूँगा।"

बड़े जेठ को जिसे नीरजा अपने बड़े भाई जैसा समझती थी। उसके मुँह से यह गंदी बातें सुनकर नीरजा के तन बदन में आग लग गई। उसने अपना रौद्र रूप दिखाकर कहा, "भाई साहब अकेली देखकर मुझे पर तरस ना खाइए, मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ। उस जवान की पत्नी हूँ जो देश के लिए कुर्बान हो गए। मैं उन की आन बान और शान को मिटने नहीं दूँगी। ऊपर बैठे हुए मुझे देख कर वह गर्वित महसूस करेंगे। उनकी आत्मा को शांति मिले मैं यही चाहती हूँ। जाइए यहाँ से.. मैं कहती हूँ अभी यहाँ से निकल जाइए, नहीं तो मैं जोर-जोर से चिल्लाऊँगी कि आप मेरी इज्जत लूटने आए हैं।"

नीरजा का इतना कहना था कि उसके जेठ ने उसे पकड़कर जोर से अपनी और खींच लिया और मुँह पर हाथ रख लिया और कहा "अब चिल्लाओ ! चिल्ला कर दिखाओ।"

यह सब देखकर नीरजा का बेटा मिंटू जोर-जोर से रोने लगा। उसको रोते देख कर विनीत ने नीरजा को छोड़ दिया बस और क्या था.. इसी मौके का फायदा उठाकर नीरजा जैसी हालत में थी वैसी ही हालात में अपने बेटे को लेकर घर से निकल पड़ी..!

"बेटा.. सड़क पर अपने बेटे को लेकर इस तरह गुमसुम क्यों बैठी हो ? तुम्हारा पति कहाँ है ?" किसी बुजुर्ग ने आकर कहा तो नीरजा ने आँखें उठाकर उस बुजुर्ग की ओर देखा। करीब पैंसठ,सत्तर साल के एक बुजुर्ग सामने खड़े थे। देखने में तो बहुत भले लग रहे थे, परंतु.. नीरजा अब लोगों से डरने लगी है। उसे किसी पर भरोसा नहीं है। जब अपने दगा दे सकते हैं तो परायों का क्या भरोसा ?

बुजुर्ग समझ गया कि नीरजा डर रही है। उसने दिलासा देते हुए कहा "बेटा मैं तुम्हारे पिता समान हूँ, मुझसे डरो मत। तुम इस हालत में बैठी हो यह देख कर मुझे अच्छा नहीं लगा। बैठने के लिए यह जगह मुनासिब नहीं है। शाम हो रही है, रात को यहाँ बैठना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए मैंने पूछा। मैं गोविंद राम यहीं पर झुग्गियों में रहता हूँ। तुम चाहो तो चलकर मेरे झुग्गी में रह सकती हो क्योंकि मेरे बेटे-बहू दोनों मुझे छोड़कर कुछ ही दिन पहले बिना बताए चले गए हैं। उनका कमरा खाली पड़ा है।"

इतना सब कहने के पश्चात नीरजा को थोड़ा सा भरोसा हुआ और हिम्मत बंधी तो कहा "बाबा.. मेरा कोई नहीं है इस दुनिया में। पति थे सी आर पी एफ में, वह भी शहीद हो गए पुलवामा हमले में। उनके शहीद होने के पश्चात मैं अपने घर में उनके परिवार के साथ रहती थी, परंतु.. मेरे जेठ ने ही मुझ पर बुरी नजर डाली। किसी तरह वहां से भागकर मैं यहाँ तक आ गई हूँ !। अब कहाँ जाऊँगी पता नहीं।" नीरजा के दोनों नैन छलकने लगी।

"कहीं जाने की जरूरत नहीं है बेटा, मुझे अपने पिता समान समझो। मैं भी बेसहारा हूँ। तुम आ जाओगी तो एक सहारा हो जाएगा। तुम्हारे बेटे के साथ हँसते-खेलते मेरा दिल भी बहल जाएगा।" गोविंद राम बड़ी कातर दृष्टि से नीरजा की ओर देख रहा था।

"बाबा.. मैं आप पर बोझ नहीं बनना चाहती, आपकी इतनी उम्र हो गई है। आप हम दोनों का बोझ कैसे उठाएँगे? हम क्या खाएँगे, क्या पहनेंगे, हमारे पास कुछ भी नहीं है।" दुखी होकर नीरजा ने कहा।

"तुम्हें मैं एक डॉक्टरनी से मिला दूँगा, जिनके यहाँ पहले मैं काम करता था। उन से विनती करूँगा कि तुम्हें कोई काम दे दे, बड़ी भली है वो डॉक्टरनी।"

इस तरह नीरजा को डॉक्टर शालिनी दुबे के घर काम मिल गया और वह खुशी-खुशी अपने बेटे के साथ गोविंद राम के घर रहने लगी। उसे एक सहारा मिल गया था। जब वह काम पर जाती, तब उसके बेटे को गोविंदराम संभालता। मिंटू, गोविंद राम को दादा-दादा करके बुलाने लग गया, तो.. गोविंद राम को भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसकी किलकारियों तथा तोतली बोलिओं ने जैसे उसके जीवन में पुनः एक बार बहार ला दिया। दिन भर उसके साथ खेलकर वक्त कहाँ से निकल जाता है उसे भी पता नहीं चलता। डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिल गया हो।

कहने के लिए तो दोनों एक दूसरे के लिए पराए हैं, परंतु.. कोई खून का रिश्ता ना होने पर भी पराए भी आज अपनों से ज्यादा बढ़कर हो गए हैं।

"नीरजा बेटा.. कहां हो ?" बाहर से गोविंद राम ने आवाज लगाई तो नीरजा की तंद्रा भंग हो गई और वह वर्तमान में आ गई।

"यहां हूँ बाबा ! बाबा.. यह लीजिए आपके घर का किराया। मुझसे जितना बना उतना दिया। जब मेरी सैलरी बढ़ जाएगी तो और ज्यादा दे दूँगी।

"न बेटी ना.. मैंने किराए के लिए तुम्हें नहीं रखा है। किराए देने की कोई आवश्यकता नहीं है। बाप-बेटी के रिश्ते में पैसे की बात कहां से आ गई बेटा। इसे अपना ही घर समझो। बेटा.. मुझे मिंटू के साथ खेल कर जो खुशी मिलती है, उस खुशी की कीमत रुपए से आंका नहीं जा सकता।" कहते-कहते गोविंद राम की आंखों से गंगा जमुना की धार बहकर गालों को भिगो रही थी !

गोविंद राम को रोते हुए देख कर आज नीरजा के मन में जमी वर्षों की भावना पिघल कर आँखों से बह निकली। बाबा.. कह कर उसने गोविंद राम के सीने पर अपना सिर रख दिया।


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