प्रेम का रंग
प्रेम का रंग
इस बार होली में प्रबल को छुट्टी नहीं मिली इसीलिए घर नहीं आ पाया। नीलिमा और रविंदर दोनों इंतजार कर रहे थे की प्रबल कब आए और आकर रंगों से भीगोते हुए कहे "बुरा न मानो होली है..! प्रबल के बारे में सोचते-सोचते जाने कब नीलिमा का मान अतीत की उन दिनों में खो गया जब पहली बार प्रबल ने उसे रंगो से सराबोर कर दिया था और उसकी आंखों में झलकते प्रेम को देखा था। फिर ससुर जी के ज़ोर देने पर उसने प्रबल से शादी के लिए मंजूरी दी थी।
दो साल पहले ही आतंकवादियों का एक बम निष्क्रिय करते समय शहीद हुए मेजर अमरेंद्र सिंह। अपने दो साल के बेटे के साथ नीलिमा बिल्कुल अकेली रह गई है। सूनी मांग, सूनी सूनी आँखें और उन सूनी आंखों में तैरते अविरल अश्रु नीलिमा के सारे सपनों को जैसे धूमिल कर दिये। ये अश्रु जीवन का जैसे हिस्सा बन गये थे नीलिमा के। सास और ससुर से नीलिमा का यह रूप देखा नहीं जाता। दो साल पहले की तो बात है रंगीन परिधान में, आंखों में कई सपने लिए कैसे खिलखिलाती रहती थी। नीलिमा के जीवन में उसका बेटा रविंदर आया तो जैसे उसकी ख़ुशियों को पंख लग गए थे।
अमरेंद्र कहता निलीमा से "देखना नीलिमा.. मैं अपने बेटे को भी फौज में भेजूंगा। देश की सेवा करने का ज़ज़्बा पैदा करूँगा उसमें भी।"
"पैदा करने की आवश्यकता ही क्या है। उसमें ज़ज़्बा तो जन्म से ही है, एक फ़ौजी का बेटा जो ठहरा। हाथ में तिरंगा थमा दो तो तिरंगा हाथ में लेकर कहता है.. मां की जय.. जय..!" नीलिमा खिलखिला कर हंस पड़ती।
आज होली का दिन है। रविंदर होली का त्यौहार कैसा होता है बहुत अच्छे से जानता तो नहीं है, परंतु.. सारे बच्चों को देख कर उछल रहा है और तोतली बोली से बोल रहा है "माँ.. मैं भी लंग खेलूंगा, मैं भी लंग लगाऊंगा, लगा दो न मुझे।" नीलिमा अपने बेटे को बाहों में भर कर रो पड़ी।
किसी ने पीछे से आकर कहा "आओ बेटा.. हम दोनों मिलकर रंग खेलेंगे, खूब रंग लगाएंगे।" नीलिमा ने पलट कर देखा सामने अमरेंद्र का दोस्त प्रबल खड़ा है।
प्रबल ने रविंदर को अपनी गोद में लेकर उसके गालों पर जैसे ही गुलाल लगाया तो वह गोद में ही उछल उछल कर कह पड़ा "और लगाओ.. चाचू और लगाओ.. खूब साले लंग लगाओ। मुझे लंग बहुत पसंद है। माँ लंग क्यों नहीं लगाती चाचू? माँ लंग लगाएगी तो बहुत अच्छी लगेगी। माँ क्यों हमेशा लोती लहती है चाचू, पापा शहीद हो गए इसलिए? दादा जी ने कहा है शहीद होना बहुत अच्छी बात है, फिर तो इसमें खुश होना चाहिए, हंसना चाहिए। माँ क्यों लोती है?"
अपने बेटे के मुख से तोतली बोली में इतनी सारी बातें और इतने सवाल सुन के नीलिमा और देर तक वहां रुक नहीं पाई। उसकी आंखों से अविरल अश्रु धार वह निकली, जिसे छुपाने के लिए वह दौड़ कर घर के अंदर चली गई।
घर में घुसते हुए अपने ससुर अमरजीत से टकरा गई "क्या हुआ बेटा.. इस तरह भागकर अंदर क्यों जा रही हो?"
"वो.. वो.. पिताजी मुझे रंग नहीं लगाना है। मुझे अच्छा नहीं लगता रंग लगाना। अमरेंद्र का दोस्त प्रबल आया है रंग लेकर।" घबराकर नीलिमा ने जवाब दिया।
"आज होली है बेटा.. अगर प्रबल आया है तो एक टीका ही लगा लो। प्रबल हमारा अपना है पराया नहीं है। तुम कब तक इस तरह आँसू बहाती रहोगी? ख़ुशियों से भागती रहोगी? पूरी जिंदगी पड़ी है तुम्हारे सामने। तुम्हारा एक बेटा भी है, जिस को खुश रखना भी आवश्यक है। वह तो रंग खेलना चाहता है और तुम रंगों से भाग रही हो? नहीं.. अब मैं ऐसा नहीं होने दूँगा!" अमरजीत नीलिमा का हाथ पकड़कर उसे बाहर लेकर आया और प्रबल से कहा "लगाओ प्रबल.. आज इसे होली के रंग में भिगो दो.. ताकि मन के सारे दुख दर्द धूल जाए।"
बस.. फिर किस बात की देर थी। प्रबल ने पिचकारी उठाई और नीलिमा के पूरे शरीर को रंगोंं से भिगो दिया। नीलिमा ने आँखें उठाकर प्रबल की ओर देखा तो.. उन आंखों में उसे प्यार की अव्यक्त निवेदन स्पष्ट दिखाई दिया। वह शर्मा गई और अपनी आँखें झुका ली..!!