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Manisha Dubey

Drama

4.1  

Manisha Dubey

Drama

उम्मीद का दीया

उम्मीद का दीया

18 mins
1.5K


सुहागरात की रात... जब नवविवाहित जोड़ा अपने प्यार के पल बुनता है. . मैं और राघव एक दूसरे के सामने अपने अतीत के पन्ने पलट रहे थे।

शादी को तीन साल बीतने आये पर आज भी हम अलग अलग कमरों में रहते हैं।

अब तो राघव ने अपना बिजनेस ही दूसरे शहर में शिफ्ट कर लिया है... यहाँ तो बस आना-जाना ही लगा रहता है।

शुक्र है बहुत दिनों बाद ही सही पर वो आ तो रहे हैं... सोच रही हूँ इस बार दिल की सभी बातें कह दूँगी उनसे।

"अजीब इश्क का दौर है..

खामोशियाँ वो समझते नहीं और कहना हमें आता नहीं।"

"रज्जो थोड़ा जल्दी हाथ चला, अभी तो पूरा घर साफ करना बचा है, देख जरा सी भी गंदगी पसंद नहीं तेरे साहब को। क्या कर रही है... वहाँ कोने में जाला लगा है, देख तो जरा...और हाँ ध्यान से वो शोकेस थोड़ा कमज़ोर सा हो गया है..ध्यान रखना वरना टूट जायेगा।"

"क्या दीदी... कितना हल्ला करती हो आप। मैं कर रही हूँ ना..आप बैठो आराम से। ये साहब भी ना महीनों-महीनों गायब रहेंगे और अचानक से एक दिन फोन कर देंगे कि कल आ रहा हूँ.. ये भी कोई बात हुयी भला..नयी दुल्हन को कोई इस तरह छोड़ कर जाता है क्या... आप भी तो कितनी अकेली रह जाती हो दीदी..आप बोलती क्यूँ नहीं साहब को कि इधर ही किधर कुछ काम-धंधा सेटल कर लें। साथ रहोगे तो प्यार बढ़ेगा ना दीदी।"

"अरे रज्जो नई दुल्हन नही हूँ मैं... शादी को तीन साल होने आये हैं.. तू भी ना.."

"एक बात पूछूँ दीदी.. ये साहब का कहीं और तो कोई चक्कर.... मतलब... साहब आपसे प्यार तो करते हैं ना ?"

"रज्जो कुछ भी ना बोला कर... मुँह खोलने के पहले थोड़ा सोचा कर... जब देखो तब उल्टा ही बोलेगी बस। चल आ इधर, ये अलमारी में नीचे पुरानी किताबें पड़ी हैं सब बाहर निकाल ज़रा... मैं तो झुक भी नहीं पा रही हूँ।"

"दीदी आप छोड़ो, मैं निकालती हूँ ना। आपकी कमर में मोच आयी है, आओ इस कुर्सी पर बैठो और मेरे को बताते जाओ कि क्या रखना है और क्या रद्दी में बेचना है।"

"हाँ रज्जो, पता नहीं कैसे ये कमर दर्द... चल छोड़.. तू एक काम कर ये साइड वाली किताबों को छोड़ कर सब बाहर निकाल दे। ये गज़ल की किताबें हैं, मुझे बहुत पसंद थी तो मैंने ली थीं, ये ऊपर वाली किताब दिखा ज़रा... आह ! इसमें तो मेरी जान बसती थी (उस किताब पर हाथ फेरते वक्त एक मुस्कान सी बिखर गयी थी मेरे चेहरे पर) ...." "अरे वाह दीदी... कुछ सुनाओ ना... "

(किताब किनारे रखते हुए मैंने कहा)" मौका मिला नहीं कि कामचोरी शुरू.. चल हाथ चला जल्दी... पहले सब काम निपटा लिया जाये फिर गज़ल पढ़ कर सुनाऊँगी तुझे।" "ठीक है दीदी... चल रे मनवा... बन जा ढीठ... करना है अब सब कुछ ठीक....चल रे मनवा.." रज्जो कुछ अजीब सा गुनगुना रही थी, शायद खुद को हौसला दे रही थी पर जो भी था सुन कर चेहरे पर हँसी लौट आयी थी... रज्जो मेरी मेड थी, एक सत्रह साल की लड़की। मेरे विराने घर में वो दिन भर मेरे साथ रहती थी, शाम होते ही घर निकल जाती थी क्योंकि उसकी माँ और छोटी बहन का ख्याल भी रज्जो को ही रखना पड़ता था। हमेशा हँसती, अजीब-अजीब सी बातें करती पर जैसी भी थी मेरे सुख- दुख की साथी बस यही तो थी।

मैं रज्जो को देख कर मुस्करा रही थी तभी उसने एक पुरानी लाल डायरी हाथ में लेकर रद्दी के ढेर पर दे पटकी और उसकी चोट मेरे दिल तक पहुँच गयी। दर्द सा उठ गया था दिल में.. मैं जल्दी से कुर्सी से उठी और जा कर वो डायरी उठा ली।

मेरी हड़बड़ाहट देख रज्जो भी डर गयी... "वो सकपकाते हुए बोली.. दीदी क्या हुआ, कुछ जरूरी किताब है क्या ये। मुझे पता नहीं था तो मैं... मैं अभी इसे वापिस रख देती हूँ।" रज्जो ने डायरी लेनी चाही पर मैंने उसे और ज़ोर से पकड़ लिया... और नम आँखे लिए दूसरी तरफ मुड़ गयी और पन्नों को पलटने लगी।

रज्जो कुछ बेचैन सी पास आकर बोली.. "दीदी क्या हुआ, आप उदास हो गयी... कुछ याद आ गया क्या ?"

"इस कदर तेरे इश्क में बेपरवाह से फिर रहे हैं हम,

लोग खफा हैं हमसे और बस काफिर सा जी रहे हैं हम"

पन्नों को पलटते हुए इस शायरी को पढ़ कर सोच में पड़ गयी कि क्या बताऊँ मैं रज्जो को कि क्या था इस डायरी में... मेरी तो पूरी जिंदगी थी इस डायरी में......मैं डायरी लेकर बालकनी में चली गयी। उफ्फ.... ये सर्द हवा के झोंके... ना जाने क्यूँ मेरे दुश्मन बने बैठे हैं, नफरत सी होने लगी है इनसे। हाँ, वैसी ही नफरत जैसी सुमेर से होने लगी थी।

अपनी यादों के पिटारे को पलटने लगी.. हवा के साथ उड़ते पन्ने ना जाने कई यादें ताज़ा कर रहे थे।

"मत पूछो हमसे कि क्या राज छिपाये बैठे थे,

दिल के हर जख्मों को बस पन्नों में सजाए बैठे थे।"

"कुछ खुशियाँ कुछ गम थे.. कुछ एहसास कुछ सपने और इनके साथ ही कुछ बुरी यादें भी। मेरा पहला प्यार और उसका गम सब था उस डायरी में। वो तो धोखा देकर चला गया और मैं सबकी नज़रों में गुनाहगार बन कर रह गयी। उसके भरोसे ही मैंने घर छोड़ना चाहा और वो मुझे ही अकेला छोड़ कर चला गया।"

कितना प्यार करती थी उससे जो डायरी के हर पन्नों पर अपने प्यार की मुहर लगा बैठी थी... "सुमेर संग सिया"

जो हाथ खुद ब खुद उसका नाम लिखने लगते थे आज वही हाथ उस नाम को मिटाना चाह रहे थे| मैंने डायरी के पन्नों को खोलना शुरू किया और एक एक कर के उसके किनारे फाड़ने लगी... वही किनारे जिस पर कभी लाल स्याही से बड़े प्यार से लिखा था सुमेर संग सिया पर अब सिया सुमेर की कहाँ रही वो तो.....

टुकड़ों के जाने के साथ ऐसा लग रहा था जैसे दिल का कोई बोझ भी धीरे-धीरे हल्का हो रहा था। हाथ कँपकँपाने लगे थे... थोड़ी देर अगर और यहाँ सर्द हवा के थपेड़ों के बीच खड़ी रहती तो शायद मेरी अगली मंजिल अस्पताल ही होती।

कुछ दर्द तो भुलाए नहीं भूलते..

चाहे वो पुरानी चोट हो या पुराना इश्क।

मैं सुमेर को पूरी तरह भूल भी नहीं पायी और जग हँसाई की आँधी कुछ ऐसी उठी कि घरवालों ने राघव के साथ मेरी शादी तय कर दी... और करते भी क्या..घर छोड़ कर भागने वाली लड़की के साथ कौन शादी करता है भला।

राघव जो उम्र मे मुझसे तकरीबन दस साल बड़े होंगे और कुछ महीने पहले ही उनकी पत्नी का स्वर्गवास भी हुआ था। वो अपनी पहली पत्नी मेघा से इतना प्यार करते थे कि दूसरी शादी के सख्त खिलाफ थे पर घरवालों की जबरदस्ती में हाँ कर बैठे। मैं जानती थी वो मुझे कभी अपना ही नहीं सकेंगे पर इसे किस्मत का लिखा मान कर मैंने सात फेरे ले लिए। राघव का प्यार मेरे नसीब में था या नहीं , पता नहीं मुझे... सोचा था धीरे-धीरे दूरियाँ नजदीकियोंं में तब्दील हो जायेगी पर.... मैं तो बस इंतज़ार ही करती रह गयी। तीन साल..बहुत लंबा समय होता है। अकेले कैसे गुजारे हैं ये तीन साल मुझसे बेहतर कौन जानता है भला..। बालकनी में खड़ी जिस गुलमोहर को मैं निहारती थी, दरअसल मेरी किस्मत भी वैसी ही हो गयी थी। उम्मीदों के फूल खिलतें और दामन में खुशियाँ आने से पहले ही वो झड़ जाते। कभी-कभी तो बहुत गुस्सा आता अपने आप पर कि "ना तो मैं उस रात घर छोड़ कर भागी होती, ना तो माँ-पापा ने नाराजगी जतायी होती, ना तो मैं जगहँसाई का पात्र बनती और ना तो इस तरह अट्ठारह बरस की उम्र में मेरी शादी हो जाती किसी अट्ठाईस साल के इंसान के साथ".. जितना किस्मत को दोष देती उतना ही खुद को भी।

माँ तो हर रोज पूछती थी.. सिया कैसी हो ? राघव जी खुश तो रखते हैं ना तुम्हें ? और मैं खामोश सी हो जाती थी... माँ भी दिलासा के पुल बाँध जाती थी कि "सिया तुम घबराना नहीं सब ठीक हो जायेगा, अतीत भूलने में थोड़ा वक्त लगता है पर याद रखना बेटा राघव तो सिया के ही थे हमेशा से और हो कर रहेंगे।"

माँ की बातें मन में हौसला भरती पर अगले ही पल मेघा का ध्यान आ जाता... वो हमारे बीच ना हो कर भी है.. उसका अस्तीत्व तक मिट चुका है पर वो हमारे बीच से जाती ही नहीं.. नफरत हो गयी थी मेघा से। मैंने भी तय कर लिया आज मेघा के बारे मे जान कर रहूँगी। ना चाहते हुए भी मैने राघव और मेघा के बंद कमरे का ताला खोला.. नफरत ऐसी कि सोचा आज मेघा का नाम-ओ-निशान तक मिटा दूँगी पर जैसे जैसे मेघा के करीब जाती गयी मेरी सोच ही बदलती गयी। बहुत सुंदर तो ना थी वो पर बहुत प्यारी हँसी झलक रही थी उसकी तस्वीर से.. उसे लिखने का शौक था.. बहुत सी कविताएँ लिख चुकी थी वो। उसका कमरा तो मानों जन्नत था...मुझे रंगों से जितनी नफरत थी मेघा को उतना ही प्यार था रंगों से... पूरे कमरे में रंग बिरंगे पर्दे लगे थे जिस पर सूरज की आती रोशनी अपनी चमक बिखेर रही थी। अलमारी देखी तो दुनिया के सभी रंग मौजूद थे उसकी साड़ियों में.. बहुत ही जिंदादिल रही होगी तभी तो शायद राघव उसे भूल नहीं पा रहे थे।

साड़ियों पर हाथ फेरते हुए एक गुलाबी साड़ी बाहर निकाल ली मैंने..वैसे तो ये चटक रंग मुझे पसंद नहीं पर आज खुद में मेघा को देखने की लालसा हो रही थी। मैं अपने कमरे में आ़यी और वो साड़ी पहन कर खुद को बार-बार आईने में निहारने लगी.. कितनी सुंदर तो लग रही थी मैं उस रंग में...ना जाने क्यूँ मैंने रंगो से किनारा कर रखा था |

नहीं.. अब और नहीं.. आज राघव के आते ही अपने प्यार का इजहार कर दूँगी। कह दूँगी कि मुझे वो जगह दे दें जो कभी मेघा की हुआ करती थी।

सोच में डूबी ही थी कि डोरबेल बजी...

दरवाजा खोलते ही मेरे तो होश उड़ गये... धक सा हो गया कुछ अंदर।

"आप... आपने कॉल कर दिया होता, मैं..मैं वो बस..ये मेघा की साड़ी...... "

मैं हड़बड़ाने लगी और राघव मुझे देख रहे थे। फिर बिना कुछ कहे वो मेघा के कमरे में चले गये। मेरी तो जैसे साँसें ही रूक रही हो.. मन में सवाल उठ रहे थे कि ये क्या कर दिया मैंने.. राघव का प्यार पाना चाह रही थी पर देखो आते ही नाराज कर दिया.. बड़ी आयी थी मेघा की जगह लेने.. बिना पूछे इस कमरे को हाथ लगा दिया। चल सिया, इससे पहले कि कुछ बवाल हो जल्दी से साड़ी बदल ले।

मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ी ही थी कि राघव ने कहा-

"सिया इधर आना प्लीज़।"

"जी.. जी मुझे माफ करियेगा, मैंने बस साफ सफाई करने के लिए ये कमरा खोला था.. ये साड़ी गलती से.. मैं"

"सिया ये लो, ये सभी रंग तुम पर खिलेंगे.. मैंने तो तुम्हें पहले ही कहा था तुम पर ये सब रंग अच्छे लगते हैं पर तुम्हे फीके रंग ही पसंद आते थे।"

"नहीं राघव, ये तो मेघा की साड़ियाँ है.. मैं कैसे।"

"मेघा ने इन सब साड़ियों को यही कोई दो चार बार ही पहना होगा फिर... फिर तो वो बस यादें ही छोड़ गयी मेरे पास अपनी।"

"यादों के सहारे तो जिंदगी नही कटती ना राघव... यादों से बाहर भी शायद कोई आपका इंतज़ार कर रहा हो और आप देख भी ना पा रहे हों।"

"उम्र कट जाती है किसी अनोखे हीरे की चाह में,

दर दर भटकते रहते हैं बीते वक्त के पनाह में,

अनमोल हो जाये वो खाक में गिरा पत्थर भी

जिसे तराशे कोई इश्क की जूनूनियत से इस जहाँ में।"

राघव हैरानी से एकटक मेरी तरफ देखने लगे और बोले -

"ये शे'र ... तुमने लिखा है ?"

"हाँ जी, कभी कभी दिल की बातें जुबान पर आ ही जाती है"

"ओ.. तो तुम्हे लिखने का शौक भी है, मुझे तो पता ही नही था"

"राघव आपने कभी कुछ जानना ही कहाँ चाहा मेरे बारे में..."

राघव को शायद मेरी ये बात पसंद नहीं आयी... वो कमरे से बाहर जाने लगे तो मैंने कहा-

"मैं खाना बना बना रही हूँ, आप फ्रेश हो लिजिये राघव. "

सोचा चलो दम आलू बना देती हूँ, राघव को पसंद भी है और जल्दी बन भी जायेंगे।

"खाना लग गया है, आ जाइये।"

"हाँ, बस अभी आया।"

"आपके पसंद की सब्ज़ी बनायी है।"

"अच्छा.. क्यूँ? तुम्हें पसंद नहीं क्या ये।"

"है ना, अब तो आपकी पसंद ही मेरी पसंद है।"

"नहीं सिया, कभी भी किसी के लिए खुद की पसंद नापसंद को बदलना नहीं चाहिये।"

"मैं भी यही सोचती थी राघव पर कभी कभी बदलना भी बहुत अच्छा लगता है.. अक्सर हम अपने हिसाब से ही रहना पसंद करते हैं और इसी वजह से कई बार आपसी तालमेल में कमी रह जाती है।"

"काफी अच्छी बातें कर लेती हो सिया तुम।"

"जी खाना भी अच्छा बना लेती हूँ, आपको कैसा लगा.. खा कर तो बताइये ज़रा।"

मुस्कराते हुए मेरी तरफ देखते हुए राघव ने पहला निवाला खाया..

"वाह! स्वादिष्ट... बहुत मिस किया इस स्वाद को मैंने... "

"जी क्या कहा आपने ?"

"नहीं कुछ नहीं खाना बहुत स्वादिष्ट बना है। हम्म्म.. काफी खूबियाँ छिपी हैं तुम में तो... "

राघव की नज़रें मुझ पर ही आ रही थी बार बार और मेरी नजरें झुकी जा रही थी... शादी के बाद भी प्यार का ऐसा एहसास हो सकता है कभी सोचा ही ना था.. दिल में बसा प्यार बाहर आने को बेताब हो रहा था.. मन बेमन ही सही पर मुझे अपमान के उस दलदल से राघव ने ही बाहर निकाला था.. अब मैं भगोड़ी सिया नहीं रही, अब मैं मिसेज़ राघव हूँ..थैंक्स अलॉट राघव... नज़रें कितना कुछ कह गयी पर जुबां ने चुप रहना ही सही समझा, ना जाने राघव कभी मेरे दिल की बात समझ पायेंगे भी या नहीं।

हमने खाना खत्म किया... मुझे लगा राघव मेरे साथ वक्त बिताना चाहेंगे पर वो तो हाथ धो कर मेघा के कमरे में चले गये।

ऐसा लगा मेरे ख्वाबों के शीशमहल पर किसी ने तबियत से पत्थर उछाल कर मार दिया हो.. बस टूटते-टूटते ही तो बचा है ये। फिर से मैं यहाँ और वो वहाँ.. ना जाने ये दूरियाँ कब जायेगी।

काश वो मेरे दिल की बात समझ पाते, काश ... आँखों से निकली कुछ बूँदों ने दिल को चैन दिया और मैं कोरे पन्नों पर अपना हाल-ए-दिल बयान करने लगी। हर बार लिखती और कूड़ेदान में जगह दे डालती... मेरी कविताओं की किस्मत भी मेरी तरह ही है.. " सफर जिंदगी का शुरू है बस चलते जा रहे हैं और दूर दूर तक मंज़िल का पता ही नहीं है।"

शाम की चाय हमने उसी गुलमोहर वाली बालकनी में ही ली.. राघव मेरी तरफ देख रहे थे फिर बोले- "जानती हो सिया...आज ना जाने क्यूँ तुम में मेघा की झलक दिख रही है.. चमकीले रंग, बेबाक अँदाज में अपनी बातें रखना, पूरे घर को शायराना रंगो में रंगना... ऐसी ही तो थी मेरी मेघा।"

कहते कहते राघव के चेहरे पर वो नूर दिखा जो मैं अपने लिए देखना चाहती थी। मैं तो खुद ही अपने आप में आज सुबह से मेघा को ढूँढ रही थी पर जब यही बात राघव ने कह दी तो मुझे अच्छा ना लगा..मेरे चेहरे से मुस्कान गायब हो गयी और मैं शांत हो गयी बिल्कुल शायद प्यार में होने वाली जलन की भावना इसी को कहते हैं।

"सिया, तुम कह रही थी ना पिछली बार कि तुम्हें गुलमोहर पसंद नहीं.. सोच रहा हूँ कटवा दूँ ये गुलमोहर का पेड़।"

मैने हैरानी से देखा और कहा- "नहीं जरूरत नहीं ... रहने दीजिये।" (मेघा को पसंद थे गुलमोहर फिर भी)

"पर उसके रंग.. वो फूल.. तुम्हीं कह रही थी ना कि अतीत की कुछ बुरी यादें हैं तुम्हारी उसके साथ... "

"यादें अच्छी हो या बुरी , उनको पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना ही तो ज़िंदगी है राघव... "

"हाँ तुम सच कह रही हो... यादों की जंजीर भी इतनी सख्त होती है कि तोड़े नहीं टूटती है।"

"राघव इस दुनिया में कुछ भी नामुमकिन नहीं होता... सिर्फ एक कोशिश की जरूरत होती है।"

दिन ढल गया, रात कट गयी ..हम आज भी दो अलग अलग कमरों में रह रहे थे... पर खुशी थी इस बात की कि हमारे बीच की दूरियाँ थोड़ी तो कम हो ही रही थी। अब खामोशियों की जगह बातों ने ले ली थी... सन्नाटों में हमारी दबी दबी हँसी का शोर सुनायी देने लगा था। कभी कभी तो हम तुकबंदी में बातें करने लगते और जब वो कुछ गलत कह जाते तो दिल खोल कर हँसतें। जो पहले हाल तक पूछने नहीं आते थे वो अब आकर पूछ जाया करते थे कि खाने में क्या बन रहा है आज। इस राघव को मैंने पहले क्यूँ नहीं देखा था..

पूरे एक महीने बीतने को आये.. डिनर के वक्त राघव ने कहा- "इस बार छुट्टियाँ लंबी ही हो गयी.. सोच रहा हूँ अब वापिस लौट जाऊँ.. काम भी तो जरूरी है।"

मन खयालों से भर गया... इतनी जल्दी..महीना बीतने को आया और अभी तो अपने दिल की बात भी नहीं कही मैंने..

जी तो चाहा रोक लूँ राघव को पर कैसे... कैसे... क्या कहूँ मैं.. कि मैं आपसे प्यार....

मैं रूआसी सी हो गयी... निवाला मुँह तक जा ही नही पा रहा था..| राघव भी आधा अधूरा खा कर कमरे में जाने लगे पर जाने से पहले बोले-

" सिया कल मेरे साथ घूमने चलोगी सुबह ? लाँग ड्राइव ?"

"सुबह...?"

"हाँ. . सर्दियों की सुबह भी सुहानी होती है.. चलोगी ?"

"हाँ.. मैं सुबह तैयार हो जाऊँगी।"

कैसे मना करती मैं... अब तो लग रहा था जैसे वक्त हाथ से रेत की तरह फिसल रहा है और मैं मजबूर सी खड़ी देख रही हूँ... क्यूँ नही कह पा रही कि "रूक जाइये राघव... अब इंतज़ार नहीं होता" कब तक चुप्पी मेरी जान लेगी। आज मन हुआ कि डायरी में लिखे वो शायरी वो नज़्म सब पढ़ जाऊँ जो कभी सुमेर के लिए लिखा था जब वो भी इसी तरह मुझे छोड़ कर चल गया था..

"डायरी मेरी डायरी कहाँ है ? कहीं राघव ने तो नहीं देख लिया ? और इसी वजह से वो वापस जाना चाहते हों .. "

आँखे डबडबा गयी.. फिर मेरी गलती... क्यूँ बाहर निकाली मैंने वो डायरी.. हर बार अपने ही गुनाहों की सज़ा भुगतनी पड़ती है मुझे... उलझ गयी हूँ जिंदगी की कशमकश में....। पूरी रात खुली आँखों में ही कट गयी... सुबह तैयार हो गयी राघव की दी हुयी लाल पीली रंग की साड़ी में... सोचा आखिरी सफर है उनके हिसाब से ही जी लूँ इसे।

मुझे देखते ही राघव ने कहा- "लगता है आज पूरा गुलमोहर ही मेरे घर में उतर आया है... "

अब ये तारीफ थी या क्या था पता नहीं.. मेरा दिल दिमाग तो बस लम्हे ही गिन रहा था। हम गाड़ी में बैठ गये...खिड़कियाँ बंद होने के बावजूद भी ये ठंडी हवाएँ कहीं ना कहीं से आकर मुझे परेशान किये ही जा रही थी।

"तुम चुप हो, कुछ कहती क्यूँ नहीं ? आज मौन व्रत ले रखा है क्या सिया ?"

"नहीं, क्या बोलूँ.. कुछ बोलने के लिए बचा ही नहीं अब।"

"अच्छा.. तो कुछ शायरियाँ ही सुना दो..."

"याद नहीं अभी कुछ.."

"क्या बात करती हो.. पूरी डायरी लिखने वाली कवियत्री को कुछ भी याद नहीं।"

मैं चौंक कर राघव की तरफ देखने लगी...

"वो डायरी.. मेरी लाल डायरी.. आपके पास.. "

"हाँ सिया घबराओ नहीं , तुम्हारी रचनाओं को मैंने आँच भी नहीं आने दी है। चलो मैं तुम्हारी मदद कर देता हूँ... देखो वो पीछे सीट पर तोहफा है तुम्हारे लिए।"

"क्या... तोहफा क्यूँ.."

"देखो तो सिया.."

मैने वो गिफ्ट उठा कर कवर निकाला.. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं खुशी के मारे रोऊँ या हँसु... जो कभी सोचा भी नहीं था वो मिल गया मुझे.. माँ सच कह रही थी.. जो मेरे अपने ना कर सके वो इक अनजान ने कर दिया.. वही अनजान जो अब जान बन चुका है मेरी।

" तोह्फ़ा - प्यार के कुछ खट्टे मीठे पल।"

मेरी लिखी पहली किताब... सिया की लिखी किताब..

"राघव ये आपने...." (आवाज तक ना निकल पा रही थी मेरे रूँधे गले से) धीरे धीरे हम उस जगह पहुँच गये जहाँ गुलमोहर की वादियाँ थी... इतना मनोरम दृश्य की पलकें झपकने का नाम नहीं ले रही थी। राघव ने गाड़ी रोकी.. और हम किनारे लगे एक बेंच पर बैठ गये। राघव ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा-

"सिया बड़ी मशक्कत करनी पड़ी इस किताब को छपवाने में... हर पेज को पता नहीं किस चुहिया ने कुतर दिया था.."

"मुझे हँसी आ गयी.. "

"आपने पूरी डायरी पढ़ी राघव ?"

"हाँ... और अतीत के कुछ पन्नों को निकाल दिये इस डायरी से भी और अपनी जिंदगी से भी.. उन पन्नों को तुम भी भूल जाना।"

"आप नहीं जानते आपने क्या किया है मेरे लिए.."

" सिया हुनर को छिपाना नहीं चाहिये... कभी भी"

"और प्यार ..राघव ? क्या प्यार छिपाना सही है ?"

"मतलब.."

"आपने मेरा हुनर समझ लिया पर प्यार क्यूँ नहीं समझ पाये। आप भी तो शायद मुझसे... वरना ये किताब.. आपका जाना जरूरी है क्या राघव ? यहीं रूक जाते ना.. यहीं कुछ बिजनेस शुरू कर लो आप.. मेरी मदद चाहिये तो मैं भी कर दूँगी.. चार पैसे कम भी मिलेंगे तो मैं कोई शिकायत नहीं करूँगी। आप चाहो तो मैं मेघा की तरह बनने की भी पूरी कोशिश करूँगी।"

"मैं चुप रहा तो और गलतफ़हमियां बढ़ेंगी वो भी सुना है उसने जो मैंने कहा नहीं।

"सिया मैं तो अपना पूरा बिजनेस समेट चुका हूँ वहाँ से... सोचा यहीं कुछ करूँगा.. तुम्हारे साथ रहूँगा पर मुझे लगा तुम अब तक अपने अतीत से बाहर नहीं निकल पायी हो तो मैं .... "

"तो आप मुझे फिर से अकेला छोड़ कर जा रहे थे।"

(पलकें अब आँसूओ का बोझ नहीं सह पा रही थी... लाख सम्भालने के बाद भी छलक ही गयी) राघव ने अपनी ज़ेब से रूमाल निकाल कर मेरी आँखें पोछीं... अपना हाथ भी बढ़ाया, शायद मुझे बाहों में भरने के लिए पर बढ़ते हाथ अचानक रूक से गये। मैं इस मौके को नहीं गँवाना चाहती थी, अब और इंतज़ार नहीं करना चाहती थी... मैंने राघव का हाथ पकड़ कर अपने काँधे पर रखा और कहा-

"माना कि अतीत में भी बसी थी एक ज़िंदगानी हमारी,

कहीं प्यार से तो कहीं दर्द में छिपी थी कहानी हमारी,

यूँ आये हो पास तो दूर ना जाना कभी,

उन बीते लम्हों की कसक से ना सताना कभी।

अब जो थामा है ये दामन तो कभी छोड़ना नहीं

सात फेरों के वो सात वचन तुम तोड़ना नहीं।"

नम आँखे लिए राघव ने मुझे अपनी बाहों में भर लिया और एक लंबी साँस लेते हुए कहा- "कितने नादान थे हम जो एक दूसरे के दिल की बात समझ भी नहीं पाये..जो तुम चाहती थी वही मैं भी चाहता था पर ना तुम कह पायी, ना मैं कह पाया। सिया तुम्हें मेघा की तरह बनने की जरूरत नहीं है.. तुम सिया हो सिया ही रहो.. राघव की सिया। मेघा मेरे अतीत का हिस्सा थी और वादा करता हूँ अब कोई भी गुज़रा वक्त हमारे बीच नहीं आयेगा।" (अपनी बाँहों की पकड़ को मजबूत करते हुए राघव ने कहा)" सिया मैं जाने के लिए नहीं आया था और अब तुमसे दूर कभी नहीं जाऊँगा।"

आज फिर उसी झड़ते गुलमोहर के बीच एक प्रेम कहानी ने जन्म लिया। बाँहों में बाँहें डाले, बिना कुछ कहे खामोशी से आज सालों के गिले शिकवे दूर हो रहे थे।


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