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गुमनाम खत

गुमनाम खत

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दुबई के 2 BHK घर में हमारा बसेरा था, आज माँ और पापा की शादी की शालगिरह थी। मैने एक छोटी सी पार्टी रखी थी यहीं घर पर ही ... हाँ घर पर ही क्योंकि पापा को पार्टी ज्यादा पसंद नहीं था... शोर शराबा से उन्हे चिढ़न होती थी, सब मेहमान चले गये ..फिर वही हुआ जिसका डर माँ को बहुत पहले से ही था।

माँ पापा की अरेन्ज्ज मैरिज थी, पापा को माँ के चाचा जी ने पसंद किया था, घर में पापा सबको पसंद आए थे पर माँ पहली मुलाकात से ही घबरायी हुयी थी। वो नानी को कहती कि माँ ये वैसे नहीं है जैसा पति मुझे चाहिये , मैं कैसे रहूँगी ऐसे इंसान के साथ लेकिन उस वक्त लड़कियों की बातें सुनता कौन था। नानी ने कोई जवाब नहीं दिया और वहाँ से चली गयी।

माँ पापा की शादी हो गयी, पापा दुबई में नौकरी करते थे तो माँ को भी वहीं जाना पड़ा। माँ वहाँ के माहौल मे खुद को ढाल नहीं पा रही थी, वो बहुत कोशिश कर रही थी पर अकेलापन उनका पीछा ही नहीं छोड़ रहा था। पापा काम के सिलसिले में ज्यादातर समय बाहर ही बिताते थे, बहुत अकेली सी हो गयी थी माँ।

शादी को लेकर माँ ने जितने सपने सजाए थे सब धूमिल होते जा रहे थे, ना तो उन्हे पापा का प्यार सही से मिल पाता और ना ही परिवार का साथ था। माँ ने कई बार इच्छा जाहिर कि अपने देश वापस आने की, नाना नानी से मिलने की पर पापा कभी कुछ जवाब नही देते और चुपचाप बाहर चले जाते।

माँ की जिंदगी जैसे तैसे कट ही रही थी ... हाँ बस कट ही तो रही थी, शादी का रिश्ता बस नाम का ही बन कर रह गया था, माँ ये सारी बातें अपनी एक सहेली को बताती थी, उनका नाम था कृष्णा आँटी।

कृष्णा आँटी ने कहा भी जया तुम क्यों इस रिश्ते को रबड़ की तरह जबरदस्ती खींच रही हो घर पर बात करो और ख़तम करो ये सब पर जया मतलब मेरी माँ उनके लिए ये सब इतना आसान ना था, वो समझती थी अपने परिवार को वो जानती थी कि नाना नानी ये सब शायद बर्दाश्त नहीं कर पाएँगे इसलिए माँ ने कुछ भी नही बताया।

माँ जब भी बहुत दुखी होती अपनी अलमारी में रखी एक लकड़ी की छोटी सी संदूक को बाहर निकालती और उसमें रखे कुछ खतों को पढ़ती.. माँ उन ख़तों में कहीं खो जाती वो किसी दूसरी दुनिया में ही चली जाती और जब वापस आती तो एक खुशमिजाज लड़की की तरह।

आखिर किसके खत थे वो....कौन था जो माँ के चेहरे पर मुस्कान लाता था।

वो जो भी था उसकी जगह सिर्फ उस संदूक तक ही सीमित थी।

दिन बीत रहे थे तभी माँ को एक रोशनी की किरण दिखायी दी.. उसे जीने की वजह मिल गयी, माँ के गर्भ में हलचल थी और उस हलचल का कारण थी मैं .. मैं रोशनी अपनी माँ की प्यारी बिटिया।

माँ को उम्मीद थी कि शायद बच्चे की आने की खुशी में पापा कुछ बदल जाएँ और माँ के साथ समय बिताए पर सब उल्टा हुआ, पापा ने माँ की देख रेख के लिए एक मेड लगा दिया और अब तो दो तीन दिन तक घर नहीं आते थे ... क्यों नहीं आते थे ये सवाल आज भी मेरे जहन में घूमता है। माँ ने तो पत्नी धर्म में कोई कसर नहीं छोड़ी फिर क्यों पापा माँ से दूर रहते थे .. क्या माँ से उनका रिश्ता सिर्फ जिस्मानी ही था। वो क्यूँ कभी माँ की रूह को ना छू सके ... आखिर क्यों.??

कभी कभी सोच यहीं आ कर रूकती कि शायद उनको उनका दूसरा जिस्मानी साथी मिल चुका था इसलिए उन्हे माँ की कोई जरूरत महसूस नहीं होती।

माँ भी शायद समझ चुकी थी कि उनके रिश्तों की ज़मीन बंजर हो चुकी है और अब उस पर फूल खिलाने की कोशिश भी बेकार है .. पर कहीं ना कहीं अब भी माँ की उम्मीदें लगी थी उस फूल से जो माँ के गर्भ में पल रहा था।

नौ महीने पूरे हो गए .. माँ की नॉर्मल डिलिवरी हुयी, डॉक्टर ने बता दिया कि बच्चा जच्चा दोनो स्वस्थ हैं

पापा हम दोनो को घर ले आए ।

नाना नानी दादा दादी सभी दुबई आए मुझसे यानि कि अपने नातिन से मिलने, माँ के हाव भाव को देखकर नानी समझ गयी कि सब कुछ ठीक नहीं है पर माँ ने नानी को कुछ भी नहीं बताया माँ की दुनिया तो उम्मीदों पर कायम थी .. वो उम्मीदें जो शायद जिंदगी भर उम्मीदें बन कर ही रहने वाली थी।

सब कुछ पहले की तरह ही चलने लगा, पापा अपने काम में व्यस्त और माँ मेरी देख रेख में व्यस्त रहने लगी। अब ना तो पापा को माँ की जरूरत रही और शायद माँ को भी पापा से अब कोई उम्मीदें नही थी, पापा जब घर आते तो पूछ लेते माँ से कि उन्हे अपने या मेरे लिए कुछ चाहिए तो नही...

माँ उनको बताना चाहती थी कि माँ को और मुझे दोनो को पापा की जरूरत है पर वो जानती थी कि इस जरूरत को पापा कभी पूरा नहीं कर पाएँगे।

मैं बड़ी होने लगी, स्कूल जाने लगी, माँ जान बूझ कर अपना पूरा वक्त मेरे आगे पीछे बिताने लगी , वो भागने लगी थी खुद से.. खुद की खुशी से.... खुद की ज़रूरतों से.....

मुझे याद है उस रात पापा माँ पर चिल्ला रहे थे, वो बार बार कोई कागज़ माँ को दिखा रहे थे और उन्हे कुछ कह रहे थे माँ रोये जा रही थी।

मैं अपने कमरे में थी .. सब कुछ साफ साफ सुनायी दे रहा था ... मुझसे और बर्दास्त ना हुआ . मैं अंदर चली गयी और माँ के पास जाकर उनके आँसू पोछने लगी, मुझे अंदर देख कर पापा ने वो कागज़ात टेबल पर पटक दिया और गुस्से से बाहर चले गये।

मैं पढ़ सकती थी उन कागज़ात को, सोलह बरस की हो चुकी थी मैं, समझने लगी थी सबकुछ।

माँ ने झट से वो कागज़ात उठा लिए और अलमारी की तरफ बढ़ने लगी, मैने माँ को रोका.. माँ ने साफ मना कर दिया कि वो मुझे कुछ भी नहीं दिखायेगी पर मैं भी उनकी ही बेटी ... उनकी तरह ही जिद्दी।

मैं जबरदस्ती माँ से वो कागज़ात लेने लगी और सब अलमारी के सामने नीचे गिर गया, मैं उसे उठाने के लिए नीचे झुकी तो माँ का रखा वो छोटा सा संदूक मुझे मिला, मैने कागज़ात उठाए और वो संदूक भी बाहर निकाला।

माँ के हाथ पैर काँपने लगे, वो परेशान होने लगी।

मैने सब कुछ किनारे रख कर माँ को बिठाया और उनको शांत किया, उनको समझाया कि अब आपकी बेटी बड़ी हो चुकी है, मुझे अपने सुख दुख का साथी बनने दो माँ । बहुत कहने पर माँ मानी पर वो रोये जा रही थी।

मैने पापा के दिए कागज़ात निकाले और पढ़े तो जितनी तकलीफ़ माँ को हो रही थी उतनी मुझे भी हुयी, वो तलाक के कागज़ात थे जिसे देखकर माँ बिखर गयी थी।

अपने आँसूओं को समेटते हुए मैने माँ का रखा वो संदूक खोला और कुछ ख़त बाहर निकाले... माँ की आँखें शर्म से नीचे गड़ी जा रही थी।

क्या लिखा था उस खत में ???

क्यों माँ वो खत सबसे छिपा रही थी ???

क्या माँ और पापा अलग हो जाएँगे ???

मेरे मन के समन्दर मे भी अनेको सवाल उमड़ रहे थे , तलाक के कागज़ देख कर सोचा माँ से पूछ लूँ उनका क्या फैसला होगा पर माँ कहीं टूट ना जाए इसका जवाब ढूँढने में... यही सोच कर मैं रूक गयी और पहले संदूक के उन खतों को पढ़ने का निश्चय किया।

खत खोलते ही ऊपर लिखा था .." प्यारी जया" .....

और सबसे नीचे लिखा था " तुम्हारे जवाब के इंतज़ार में तुम्हारा...."

कोई नाम नहीं, कुछ नहीं... मैं समझ गयी ये खत माँ के लिए लिखा गया है, माँ की अनुमति लिए बिना इसे पढ़ना सही नही होता ... माँ की तरफ देखा तो वो ज़मीन की तरफ देख रही थी.. ना जाने किन खयालों में गुम थी। मैने माँ से पूछा - ये खत आपके लिए हैं ना माँ... किसने लिखे हैं.. क्या मैं इसे पढ़ सकती हूँ ??

बिना कुछ जवाब दिए माँ वहाँ से चली गयी, मैं भी कश्मकश में पड़ गयी कि पढूँ या ना पढूँ .. पर जब तक पढ़ती नहीं तब तक समझ कैसे आता।

मैने खत पढ़ना शुरू किया, लफ्ज़ ब लफ्ज़ वो खत मुझे किसी और दुनिया में ले जा रहे थे। एक सपनों की दुनिया में...जहाँ माँ थी... हँसती मुस्कराती शरमायी सकुचायी सी....इतना खुश तो माँ को असल जिंदगी में मैने कभी नहीं देखा था।

माँ के पास कोई खड़ा था जो माँ के जुड़े को गज़रे से सजाना चाहता था, माँ शरमा रही थी और वो नजर भर के माँ को देखना चाहता था।

मैं नही जानती कि वो कौन था पर हाँ कोई तो था जो माँ को बहुत प्यार करता था, ये उसी के लिखे खत थे। उन खतों में वो सब कुछ लिखा था जो माँ पापा से चाहती थी और इसमें गलत भी क्या था... हर शादी शुदा औरत की पहली चाहत तो उसके पति का प्यार और साथ ही तो होता है .. नि:स्वार्थ भाव से पति की सेवा करने वाली पत्नी क्या चाहती है... यही ना कि उसका पति उसे सम्मान की दृष्टि से देखे तो इसमें गलत क्या है... यही सब तो माँ ने भी चाहा था।

पर उन्हे सिर्फ अकेलापन मिला...ज़िल्लत भरी एक जिंदगी मिली, कहने को सब कुछ था माँ के पास पर असल में कुछ नहीं था वो खाली सी थी बिल्कुल।

उन खतों को पढ़ कर मेरे मन में भी उथल पुथल मच गयी, मैं जानना चाहती थी वो कौन था.. माँ से पूछने की बहुत कोशिश की पर माँ ने कुछ नही बताया। तभी पापा का मैसेज आया .. वो माँ के जवाब का इंतजार कर रहे थे ... जवाब क्या वो माँ की हाँ का इंतजार कर रहे थे क्योंकि उन्हे तो किसी और के साथ दुनिया बसानी थी।

माँ की तरफ से मैने जवाब दिया.. उन्हे बता दिया कि माँ अब उनके साथ नही रहेगी, माँ ने बहुत गुस्सा भी किया मेरी इस हरकत के लिए पर मैंने तो माँ के लिए सपने सजा लिए थे ..अब मैं पीछे हटने वाली नही थी। कुछ ही देर में तलाक के कागज़ात लेने पापा ने अपने दोस्त को भेजा और उसी के साथ माँ और मेरी टिकट भी भेज दी, चलो कम से कम इतनी इंसानियत तो बाकी थी अभी।

टिकट देख कर मैं तो बहुत खुश हुयी क्योंकि अपने देश को मैने सिर्फ टी वी पर ही देखा था ..अब मैं वहाँ जाने वाली थी और माँ की जिंदगी भी तो सजानी थी ना....

माँ समझ नही पा रही थी कि वो रिश्ता टूटने का दुख मनाए या घर जाने की खुशी मनाए, मैने माँ को समझाया कि जो रिश्ता कभी था ही नही..जिस रिश्ते मे तुम्हारा कोई अस्तित्व ही नही था क्यों उसे जबरदस्ती निभाने की कोशिश कर रही हो।

माँ को समाज का डर था.. लोग क्या कहेंगे... नाना नानी और सभी रिश्तेदार क्या कहेंगे....

मुझे तो बहुत गुस्सा आया कि इतने सालों से जो तुम खून के आँसू रो रही हो तब कौन से रिश्तेदार और कौन से समाज ने तुम्हें सहारा दिया ... अब तुम आज़ाद हो माँ.. जिन्दगी अभी खत्म नही हुयी..जिंदगी अभी शुरू हुयी है .. तुम्हें तो अभी बहुत कुछ करना है माँ..।

माँ कुछ समझ नही पायी और उस वक्त मैं माँ को उन खतों के बारे में कुछ बताना भी नहीं चाहती थी।

मैने कृष्णा आँटी से बात कर ली थी, मैं उस इंसान के बारे में जानना चाहती थी.. कृष्णा आँटी उन खतों के बारे में सब कुछ जानती थी और कमाल की बात तो ये थी कि कृष्णा आँटी जानती थी उस शख्स को.. वो माँ और कृष्णा आँटी के साथ स्कूल में थे .. उन्होने अपने प्यार के बारे में माँ को कभी भी खुल कर नही बताया और उन खतों से माँ समझ भी ना सकी ..जल्दबाजी में माँ की शादी हुयी और बाद मे जयंत जी को ये सब कृष्णा आंटी से पता चला, नम आँखे लिए उन्होने कसम दी कि आंटी माँ को कभी उनके बारे में ना बताए। आँटी ने कभी कुछ नहीं बताया।

मैंने कृष्णा आँटी से कहा कि वो उनका पता करें ....वो मतलब कि "जयंत जी" का.. हाँ यही नाम था उनका आँटी ने बताया था मुझे।

जयंत जी अभी नासिक में रहते थे, उनकी पत्नी का देहांत कई सालों पहले ही हो गया था और उनकी कोई संतान भी नही थी, हाँ अब वो चालीस-पैंतालिस बरस पार कर चुके होंगे और माँ भी चालीस के दहलीज़ पर है तो शायद एक दूसरे को ना पहचान पाए। अब तो चेहरे की चमक को झूर्रियों ने धूमिल कर रखा है..

मैने जल्दी जल्दी सब सामान बाँधा और तीन दिन बाद हम वहाँ से निकल गये, मैने नाना नानी को भी पुणे बुला लिया जहाँ कृष्णा आंटी रहती थी। हालांकि नाना नानी तो सिर्फ हमें लेने आ रहे थे .उन्हे माँ के बारे में कुछ नहीं पता था।

आखिरकार हम पुणे पहुँच ही गए, माँ और कृष्णा आंटी कई सालों बाद मिले थे .. आंखों से आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे, मैने भी उन्हे सिर्फ विडियो चैट में ही देखा था।

आँटी ने सब कुछ तैयार कर रखा था, अगले दिन मैं आंटी की बेटी के साथ नासिक को निकल गयी...उनके दिए पते पर हम पहुँचे।

डोरबेल बजाने वक्त हाथ कांप रहे थे मेरे ... कुछ देर बाद एक शख्स बाहर निकले, लम्बी कद काठी .. मद्धम रंग ... उन्होने पूछा जी कहिये... बिना कुछ कहे मैने माँ की एक पुरानी तस्वीर उन्हे दिखा दी। वो तस्वीर देख कर वापस अंदर की तरफ मुड़ गये और चले गए, मेरा तो सपना ही टूटने लगा ऐसा लगा जैसे उन्होने माँ को पहचाना तक नहीं।

मैं भी वापस होने लगी तभी अपना चश्मा लगाते हुए वो वापस आये और बोले ...दिखाओ बेटा.. वो नजर थोड़ी कमज़ोर हो गयी है ना, मैं भी पूछ बैठी आप जयंत जी हैं ना .. वो आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगे.. मैने उन्हे तस्वीर दे दी।

तस्वीर देखते ही उनकी पलकें भारी हो गयी, आँखें नम हो गयी.. वो मेरी तरफ देखने लगे.. मैने कहा ये मेरी माँ है, उन्होने मुझे अंदर बुलाया.. मैने उन्हे सब कुछ बताया.. वो आज भी माँ को प्यार करते थे।

मैने पूछा आप शादी करेंगे माँ से.. वो स्तब्ध से हो गये, उनको और उनकी हाँ को लेकर मैं वापस आ गयी..

एक पार्क में माँ और जयंत जी की मुलाकात करा दिया हमने.. माँ उन्हे पहचान गयी पर सिर्फ एक पुराने दोस्त की तरह ....माँ ने मुझे भी मिलवाया और बताया कि ये जयंत हैं मेरे बचपन के दोस्त..हम साथ में ही पढ़ा करते थे...इन्होंने हमेशा मेरी बहुत मदद की है.... माँ बोले जा रही थी और माँ को देखकर जयंत जी की आँखें भीग गयी ...इससे पहले कि माँ कुछ और कहती या पूछती जयंत जी ने माँ के हाथ में एक खत पकड़ा दिया, मैं सब समझ गयी और वहाँ से चली गयी।

पास के बेंच पर बैठ कर माँ ने वो खत खोला.... वही लिखावट..वही एहसास.... प्रिय जया...

माँ आश्चर्य से खत को देखने लगी और पढ़ने लगी .. आज खत में जयंत जी ने अपनी आपबीती लिखी थी और आखिर में लिखा कि " क्या तुम मुझसे शादी करोगी... तुम्हारे जवाब के इंतज़ार में..तुम्हारा...जयंत "

आज खत पर नाम लिखा था ... पढ़ कर माँ रोने लगी ..जयंत जी ने माँ के कँधे पर हाथ रखा ... माँ ने भी अपनी सहमति दे दी...दोनो बिना कुछ कहे एक दूसरे को देख रहे थे..मानो पूछ रहे हो कि तुमने इतनी देर क्यों कर दी... कितने बरस इंतज़ार किया था दोनो ने ..।

माँ और मैं वापस आंटी के घर आए, वहाँ नाना नानी सभी आ चुके थें, वे लोग हमें साथ ले जाने की तैयारी में थे .. पर अभी कहाँ.. पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त... अब समय था धमाका करने का।

मैने जयंत जी की तस्वीर दिखायी सबको और ऐलान कर दिया कि अगले हफ्ते माँ और जयंत जी शादी करने वाले हैं।

सभी के होश उड़ गये थे, अब सभी माँ और मेरी तरफ सवालिया निगाह से देख रहे थे ...

नाना नानी गुस्से में लाल पीले हो चुके थे और शुरू हो गए...

"जया क्या है ये सब... कैसे संस्कार दिए है तुमने अपने बेटी को .. बिना सोचे समझे कुछ भी कहे जा रही है.. हाँ वैसे भी अपने देश में रही होती तो कुछ सीखती ना.. वहाँ परदेश में क्या सीखेगी भला ... दामाद जी तो काम में व्यस्त रहते होंगे और तुम्हें तो फुरसत ही नही रहती होगी कि कुछ सीखा दो। कुछ तो सोचा होता तुमने... आखिर लड़की है ये..कल को शादी करनी है इसकी.. ऐसे में कौन सा लड़का इसका हाथ थामेगा, ज़रा भी समझ नहीं है इसे इसके पापा जिंदा हैं और ये माँ की दूसरी शादी की बात कर रही है। "

इससे पहले कि नाना नानी कुछ और कहते माँ उन्हे रोकते हुए बोल पड़ी मर चुके हैं इसके पिता.. मर चुके हैं मेरे पति ... नहीं हूँ मैं किसी की भी ब्याहता... आपने देखा नहीं शायद... मेरी माँग का सिंदूर मैं वहीं छोड़ आयी हूँ और अब वापस कभी नहीं लौटूँगी, ना तो वो देश मेरा था और ना वो घर मेरा था... मेरा दुनिया सिर्फ मेरी बेटी ही है .. आप सबको कोई हक नहीं है इसे बुरा भला कहने का।

क्या गलत कह रही है ये... ग़लती तो आपने भी की थी ना माँ जब बिना सोचे समझे मेरी शादी तय कर दी मुझे परदेश भेज दिया.. मैने तो आपसे कहा भी था मुझे इस बंधन में ना बाँधो.. लड़का सही नही लगता पर आपने मेरी एक ना सुनी ...।

आप लोगों ने मुझे कोई हक नहीं दिया था, जब तक मायके में थी आप लोगों के हिसाब से चलती रही, जब ससुराल गयी तो वहाँ के हिसाब से और जब पति के साथ रहने लगी तो पति को ही परमेश्वर समझा. .. जैसा जैसा सबने कहा मैं करती गयी पर मेरा किसने सोचा ..... किसी ने नही.... मुझे क्या पसंद है ना पसंद है कभी पूछा ही नहीं आप सब ने .बस अपनी मर्जी थोपते गये.. जब तक आप सभी की बातों को माना तब तक संस्कारी नहीं माना तो चरित्रहीन भी आप सभी ही बना देते हो।

अगर उस वक्त आप मेरे माता पिता के साथ मेरे दोस्त बने होते तो मैं बताती आपको अपने उन खतों के बारे में... हाँ मेरे गुमनाम खत जो किसी ने बहुत प्यार से लिखा था पर कहीं चरित्रहीन का मोहर ना लग जाए इस डर से कभी जानना ही नही चाहा कि वो गुमनाम खत लिखने वाला कौन है .... मुझे पसंद थे उसके लिखे सभी खत.. खत की खुशबू में भी प्यार झलकता था पर अपने संस्कार के बोझ तले दबे दिल को मैने समझा दिया.. खुद को संस्कारी बनाने के लिए आपकी सब बात मान ली।

आज देखो आप मेरा क्या हाल है .. ये शादी के अट्ठारह साल मैने कैसे बिताएँ है मैं ही जानती हूँ, हर एक दर्द हर ज़िल्लत सहती रही कि आप लोगो को तकलीफ ना हो .. इसे ही अपनी किस्मत का लिखा समझ लिया था मैने पर मेरी जिंदगी में रोशनी लेकर आयी मेरी बेटी.. मेरी रोशनी मेरी दोस्त.. जिसने मुझे समझा.. जो मेरे दर्द का सहारा बनी ... इतनी छोटी उमर में ये वो सब कुछ समझ गयी जो आप सब ना समझ सके।

मेरी भी जिंदगी है.. मेरे भी सपने हैं.. कुछ अरमान हैं जिन्हे मैं जीना चाहती हूँ.. पर आपको अपनी बेटी की नही सिर्फ समाज की चिन्ता है, आप समाज से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं.. एक काम करिये आप सभी वापस चले जाइये और किसी से कुछ ना कहियेगा..आपको समाज का सामना भी नहीं करना पड़ेगा..

रोशनी मेरी बच्ची तुम सच में मेरे जिंदगी को रोशन कर रही हो, मैने तो जिंदगी से हार मान ली थी पर तुमने मुझे फिर से जीना सीखा दिया, माँ ने कहते हुए प्यार से मेरा माथा चूम लिया।

नानी भी तो माँ ही है ना ..वो भी भला कैसे अपनी बेटी का दर्द देख पाती.. माँ के पास आकर नानी ने माँ के गाल को सहलाया और उन्हे सीने से लगा लिया.. धीरे धीरे सब तैयार हो गये..।

अगले दिन जयंत जी घर आए..सबसे मिले... सब खुश थे, मैं भी खुश थी जयंत जी को अपने पिता के रूप में देख रही थी और सबसे ज्यादा माँ खुश थी.... आखिर उन्हे उनका "ग़ुमनाम प्यार " जो मिल गया था

धन्यवाद !

दोस्तों ये सिर्फ एक कहानी थी पर इस कहानी के माध्यम से मैं आप लोगो से ये जानना चाहती हूँ कि क्या औरत को हक नही है अपनी जिंदगी जीने का.. अपने फैसले लेने का... हमेशा वो कठपुतली बन दूसरों के इशारों पर ही क्यों नाचे ??

जबरदस्ती ज़िल्लत भरे रिश्तों का बोझ क्यों ढोये ??

क्या औरत दूसरी शादी नहीं कर सकती...क्या औरत को प्यार पाने का कोई हक नही है... जैसे जया जी ने पाया अपना गुमनाम प्यार जयंत जी के रूप में..


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