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मोह माया

मोह माया

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अमर का मृत शरीर अमर के सामने था, वो स्वय को बहुत हल्का अनुभव कर रहा था, कोई दुःख नहीं, कोई दर्द नहीं, केवल ख़ुशी ही ख़ुशी - चारों ओर अद्भुत दिव्य प्रकाश।

"प्रभु अब मुझे कोई और जन्म मत देना..." यह कह कर अमर अपने शरीर से मुंह मोड़ कर ऊपर की ओर उठने लगा। काफी ऊंचाई पर जाकर उसने नीचे देखा, उसकी पत्नी, बच्चे, माँ और भी कई आत्मीयजन उसके मृत शरीर के पास थे, उनकी आंखों से अविरल आंसू बह रहे थे। उनके रूदन की ध्वनि से अमर के आसपास का वातावरण भी गुंजायमान हो उठा। उसने और नजर घुमाई तो उसके द्वारा डिजाइन किये हुए छोटे बड़े स्थापत्य दिखाई दिए, जो बहुत सुंदर लग रहे थे।

"ना कुछ देखना चाहता हूँ ना कुछ सुनना, फिर आत्मा होकर भी मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है ?" 

उसने स्वयं से ही पूछा तो स्वयं से ही प्रत्युत्तर आया, "यह प्रेम है, जो मानव जीवन से जुड़ा है, आत्मा इसका अभिज्ञान नहीं कर सकती। अमर तुम देख और सुन इसलिये रहे हो, क्योंकि तुम पूरी तरह आत्मा नहीं बने। स्थूल शरीर तो तुम्हारा मृत हो गया, लेकिन सूक्ष्म शरीर नहीं और यह कई व्यक्तियों के प्रेम से जुड़ा हुआ है, इसे मोह-माया का बंधन भी कह सकते हो, शरीर अपूर्ण है, आत्मा भी अपूर्ण है। आत्मा के पास प्रेम नहीं..."

वह पुनः अपने मृत शरीर के पास आ गया था, देखा उसका पुत्र उसे झिंझोड़ रहा है, और कह रहा है, "पापा उठ जाओ, पापा उठ जाओ..."

और अमर आंखें मलता हुआ बिस्तर से उठ गया।


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