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PRAVIN MAKWANA

Inspirational

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PRAVIN MAKWANA

Inspirational

नवधा भक्ति

नवधा भक्ति

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‘नवधा भक्ति’ में उपासना का मंगल-सूत्र है "कीर्तन" ! यह भक्त के निज मन, प्राण और आत्मा को स्पन्दित करता हुआ, सहस्रों जीव-जन्तुओं, जड़-चेतन को स्पन्दित कर देता है। समस्त वायुमण्डल में ब्रह्म-अनुभूति होने लगती है। कीर्तन-ध्वनि अनन्त कर्णकुहरों में पहुँचकर ब्रह्म की प्राप्ति की स्पृहा उत्पन्न करने लगती है। अनाहत-नाद चित्त में पहुँचकर सम्पूर्ण इन्द्रियों की कृति एकत्र कर लेता है। इन्द्रिय-निरोध हो जाता है। बड़ी माधुरी है इस साधन में। 

तृण से भी स्वयं को छोटा मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु रहते हुए, स्वयं के सम्मान से दूर तथा दूसरों का सम्मान करते हुए, सदा हरि का कीर्तन करना/सुनना चाहिये। एकमात्र श्रीहरि का नाम/भक्ति (अथवा प्रभु के जिस नाम, भजन द्वारा मन प्रभु में जुड़ जाय) उसी के गायन/कीर्तन के अतिरिक्त कलियुग में पार होने की दूसरी कोई गति नहीं है, नहीं है, नहीं है।

तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुता।

अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।।

हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम्।

कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा।। (श्रीमद्भागवत, द्वादश स्कन्ध )


इसकी पुष्टि करते हुए स्वयं श्रीहरि कहते हैं – हे नारद। मैं वैकुण्ठमें निवास नहीं करता और योगियों के हृदय में भी निवास नहीं करता। मेरे भक्त जहाँ मेरा गायन करते हैं, कीर्तन करते हैं, मैं वहीं निवास करता हूँ। 

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।

मद् भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद।।

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड १२/२२)


कीर्तन में सात्विक-भाव का प्रकाश (प्रादुर्भाव) होने से प्रभु के आगमन का अनुभव होता है, ब्रह्म-अनुभूति होती है, ब्रह्मज्ञान मिलता है !



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