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chandraprabha kumar

Inspirational

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chandraprabha kumar

Inspirational

यह - अस्तित्व

यह - अस्तित्व

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  काफ़ी पहले की बात है, तब बिहार राज्य से झारखंड अलग नहीं हुआ था। दुमका संथाल परगना ज़िले का मुख्यालय था। दुमका में हमारी वन विभाग में पोस्टिंग थी। शहर से दूर बहुत बड़ा सा घर था। आस-पास घना जंगल था। हमारी कोठी चारों तरफ़ चहारदीवारी से घिरी हुई थी सुरक्षा दृष्टि से। सुना था कि जंगल से लकड़बग्घा आ ज़ाया करता था, बच्चों को उठा ले जाता था इसीलिये कोठी को अच्छे से घेरा हुआ था। 

 एक छोटी सी बिटिया हमारी थी। क़रीब तीन वर्ष की हो गई थी। पास में कोई दूसरा मकान नहीं था, जहॉं वह अपने हम वयस्क बच्चों के साथ खेल पाती। उसे कोई कंपनी नहीं थी। 

दैवयोग से तभी ऐसा हुआ कि केरल के एक आदिवासी पादरी हमसे मिलने आये। वे क्रिश्चियन थे और यहॉं दुमका में आदिवासी बच्चों के लिये एक स्कूल चला रहे थे। स्कूल का नाम गुहियाजोरी मिशन था और वे वहॉं के प्रिन्सिपल थे। वे अपने किसी काम से आये थे। उन्होंने हमारी बिटिया को देखा तो कहा - “इसे हमारे स्कूल में भेज दीजिये। वहॉं बच्चों के साथ खेल खेल में कुछ सीख भी जायेगी।”

हमने पूछा-“ स्कूल में कहॉं के बच्चे आते हैं?”

उन्होंने बताया -“ यहॉं के आदिवासी बच्चों के लिये स्कूल खोला है। अधिकतर संथाल बच्चे आते हैं , पर हम हिन्दी, अंग्रेज़ी और संथाली सब सिखाते हैं, हिन्दी कविता भी कंठस्थ कराते हैं। “

हमें थोड़ी देर सोचना पड़ा। बिटिया बहुत छोटी थी, स्कूल आना- जाना कैसे करेगी। पर इसका भी हल उन्होंने बता दिया। वे बोले-

 “स्कूल बस है। वह बच्चों को लाती और ले जाती है। बच्चों की पूरी देखभाल करते हैं”।उनके कहने पर हमने बिटिया को उनके स्कूल में दाखिल करा दिया। हमने आदिवासी बच्चों के साथ पढ़ने - खेलने के लिये अपनी बच्ची को भेजने में कोई एतराज़ नहीं किया। सोचा , घर में अकेली रहती है,हमउम्र बच्चों से मिलना रहेगा तो अच्छा रहेगा। बेटी को स्कूल में दाखिल करा दिया, वह बस से आने-जाने लगी। 

कुछ दिनों में ही वह वहाँ से सीखी हुई कविता सुनाने लगी। संथाली भी बोलने लगी। उसकी संथाली तो हम समझ नहीं पाये। संथाली समझने के लिये हमें संथाली- हिन्दी की किताब लेनी पड़ी। भाषा तो सभी अच्छी हैं, जहॉं रहते हैं, वहॉं की भाषा आनी चाहिये। 

बिटिया ने हिन्दी कविता भी सीख ली। वह अभी भी तोतली बोलती थी। तोतली भाषा में ही कविता सुनाती थी। पर समझ में आ जाती थी। कुछ कविता ऐसी थी-

“आज हम दये बाज़ार

लाने ते लिये आलू

आलू आलू छुत गया

तात में आ दिया भालू ।


आज हम दये दंदल 

लाने के लिये लकरी 

लकरी लकरी छुत दई

तात में आ दई लरकी। 


आज हम दये दंदा 

लाने के लिये पानी

पानी पानी छुत दया

सात में आ गई नानी।

*************

दादी ते दर जायदे 

हलवा पूरी थायदे

दादी पतरने आयेदी 

झत चुईया बन

बोरी में दुत जायदे। 


नानी ते दर दायदे 

दई बताचे तायदे 

नानी पतरने आय दी

झत चिरिया बन उर जायदे। 

 यह सब सुनकर अच्छा लगता था। बेटी वहॉं बच्चों के संग खेल खेल में सीख रही थी। डॉंस भी सीख रही थी। हमारा भी उसकी तोतली भाषा में कविता सुन मनोरंजन हो जाता था। मिशन की शिक्षिकायें भी संथाली थीं, लेकिन मेहनती थीं। मिशन के बच्चों का ध्यान रखती थीं। मिशन में बेल्जियम से भी लोग आते रहते थे। वे बेल्जियम का चीज़ भी साथ लाते थे। मिशन के प्रिन्सिपल जब हमसे मिलने आते एक बड़ा सा चीज़ हमको भी दे जाते। वह चीज़ गोल और चपटा होता था, मोटी केक जैसा। उसके ख़त्म करना मुश्किल था तो उसको बेसन में डालकर पकोड़ी बना लेते थे। जो मेहमानों को देते थे और वे भी पसन्द करते थे। 

 उस स्कूल के चलते संथाली उत्सव करमा आदि से भी परिचय हो गया। वहॉं से ट्रॉंसफर होने के बाद वहॉं की यादें शेष रह गईं।


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