भीगी यादें
भीगी यादें
प्रेम तो हृदय की गहराइयों में बहने वाला झरना है जिसकी कलकल ध्वनि से आनंदित होना बहुत ही निजी अनुभव है जो प्रेम की जीता है वही उसकी आल्हाद लहरियों की अनुभूति में भीग पाता है। अस्सी के दशक में बड़ी विरोधाभासी परिस्थितियां थीं। कथाओं , सिनेमा और लेखन में प्यार की अवधारणा को पावन रिश्ते के रूप में दर्शाया जाता जबकि समाज में प्यार की सच्चाई स्वीकार्य नहीं थी।
जिगर मुरादाबादी के अनुसार -
''इक लफ़्जे - मोहब्बत का अदना ये फ़साना है,
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है,
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे,
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है,
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन,
बंध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है !''
पढ़ने वाली समझदार बेटी के ठप्पे ने आकाँक्षाओं के उड़ने वाले पंखों को खुलने ही नहीं दिया। कॉलेज जाते समय पूनम का घर बीच में पड़ता था और वो मेरे साथ ही जाती थी। मेरे पहुँचने के वक्त बिना नागा उसके शेखर भैया गेट पर मिल जाते थे। उम्र का तकाज़ा था या उनकी नेहिल आँखों में चुंबकीय खिंचाव था ...कि मैं उनकी ओर आकर्षित होने लगी। ...कई बार मेरी खोजती आँखों के समक्ष खिलखिलाते हुए पेड़ की आड़ से निकल आते ,पूनम को आवाज़ लगते '' पूनम देख तेरी सहेली तुझे ढूंढ रही है !'' मैं अनायास झेंप जाती।
एक दूसरे की चाहत जानते हुए भी हमे अपनी मर्यादा रेखा की जद मालूम थी। बिना बात किये भी मेरी आँखों में शबनम ,गालों में सुर्खी और लबों में सौ सौ गुलाब खिल गए थे। मन उपवन रंगबिरंगे पुष्पों की सुगंध से सराबोर रहता। हर वक्त मुस्कुराती गुनगुनाती कितनी ही सक्रिय उठी थी मेरी सृजनात्मक शक्तियों में अभूतपूर्व बढ़ोतरी होने लगी थी ,अद्भुत वाद्ययंत्रों की स्वरलहरियां वातावरण में थिरकने लगीं थी। पैरों में नुपूर बजने लगे थे। बड़ी खुशमिजाज सी रहने लगी थी मैं उन दिनों...भोर के उगते सूर्य में उनका चेहरा दिखाई देता, सांझ के ढलते सूरज की लाली में भी उनका ही अक्स दिखाई देता।
आँख मूंदती तब भी एक ही मूरत नज़र आती। पत्तों वाली टहनी लेकर ''लव मी और लव मी नॉट !''
का खेल खेलती और पत्तों को तोड़ती जाती। पूनम के चाँद में, घटती चंद्रकलाओं में, तारों भरे आकाश में और स्याह रातों में उनकी पुकारती सी आँखें नज़र आती थीं। एक जादुई दुनिआ में प्रवेशित हो रही थी मैं, सरसराती हवा उनकी काल्पनिक आहट से चौंका देती थी मुझे। प्रेम भरी बचकानी कविताओं पर खूब कलम चली मेरी उन दिनों।
पूनम की शादी का दिन, मुझे मेहंदी लगनी थी उसे...सारी रात रुकना था उसके साथ...अंताक्षरी का खेल फ़िल्मी अंदाज के रूमानी गीत जो मेरी ही ओर इशारे करते प्रतीत होते, उनका खिलखिलाना सारी ज़िंदगी जीने के लिए यादें दे गया। सुबह वाशबेसिन में मुँह धो रही थी, तार पर कपड़े सूख रहे थे, किसी महिला के अंतःवस्त्र का हुक मेरे बालों में फंस गया मुँह में साबुन लगा होने से आसपास किसी को आवाज़ लगाई वे पास आये बिलकुल पास, धीरे से हुक हटा दिया। इधर उधर देखकर शर्माते हुए चले भी गए। ये सब पूनम ने बाद में मुझे बताया, सारी बात जानकर मैं भी बहुत लजाई। पूनम शायद हमारी चाहत भांप गई थी तभी हमें अकेले का मौका दिया था उसने।
उन्होंने कहा - ''एक बार तो मेरी ओर देखो जरा !''
और मैं नीची निगाह किये थर थर कांप रही थी।
''अरे ! तुम तो डर रही हो मुझसे, मैं तो शादी करना चाहता हूँ तुमसे !''
''बोलो ना, मुझसे ब्याह रचाओगी !''
''धत्त...''कहकर भाग आई थी मैं !
पूनम की शादी के बाद आना जाना वैसे भी बंद हो गया था।
पूनम पीहर आई थी और मैं उसके घर अपनी शादी का कार्ड देने गई थी अपनी माँ के साथ, माँ बाबा की आज्ञाकारी बेटी ने अपने स्वप्नअश्वों की उड़ान को लगाम दी थी यथार्थ की कठोर मरूभूमि पर पांव जमाया था, तितली के आभासी पंखों को विवाह की वेदी पर छोड़ दिया। नम आँखों से अपने ब्याह में उस शख्स को दौड़ दौड़कर काम करते देखा।नजरें टकराईं तो मेरी भीगी आँखों ने उन हंसती आँखों में अव्यक्त पीड़ा महसूस की थी। एक दूसरे से बिना कोई चाह लिए बिना कोई वादा किये रुखसत हो गए थे।