दादी का बक्सा
दादी का बक्सा
"दादी ! बताओ ना तुम इस बक्सा में क्या रखती हो कि किसी को भी देखने नहीं देती हो।" ना जाने कितने सालों से ये सवाल मैं दादी को पूछती आ रही थी। और दादी भी ना, कभी नहीं बताती थी कि बक्से में क्या है। हँस कर कहती थी,
"मेरे मरने के बाद देख लेना, साथ थोड़े ही लेकर जाऊँगी।"
ऐसा नहीं था कि वो बक्सा हमारे लिए ही निषिद्ध था, बुआ लोगों को भी नहीं देखने देती थीं दादी। हर साल सारा परिवार गर्मी की छुट्टी में गांव में दादी के पास इकट्ठा होता था। सबकी नजरें बस बक्सा पर ही रहती थी, बहुत सुंदर भी था बक्सा।
जब दादी वो बक्सा खोलती थी सारे बच्चों की फौज उनके चारों तरफ फैल जाती थी और उनका बड़बड़ाना शुरु हो जाता था,
"अरे ! कौन सा धन भरा पड़ा है, काहे गिद्ध चीलों की तरह मंडराने लगते हो।" और फिर से ताला लगा देती थीं।
"अरे ! तुम लोग दादी की बातों में मत आओ, बहुत पैसा है इनके पास, बक्सा भर रखा है।" बड़ी माँ कहती।
" हाँ, है मेरे पास खूब ख़जाना, तो साथ थोड़े ही लेकर जाऊँगी सब तुम लोगों को ही मिलेगा, बाँट लेना तुम लोग आपस में।"
आज दादी चिर निद्रा में सो गई हैं, उनके सामान के साथ बक्सा भी खोला गया, उसमें से जो निकला हैरान करने वाला था, कुछ सूखी मिठाई, दिवाली के बचे हुए पटाखे, दो धागे, दो सूई, थोड़े से तुड़े मुड़े नोट, थोड़ी रेजगी, दादा की एक फीकी सी फोटो, यही था उनका ख़जाना जिसे वो सहेज कर रखती थीं। दादा जी के जाने के बाद अकेले ही बच्चों की परवरिश करके यही धन जमा कर पाई थीं।